शनिवार, 4 सितंबर 2010

अपराजिता

दोपहर हो चुकी थी. ध्रुव को सुलाकर मैं आफिस के लिए तैयार होने लगी थी. शान्ति खाना बना रही थी. तभी कालबेल बजा. कौन आ गया इस समय...सोचते हुए मैने दरवाजा खोला.

तीन साल बाद अचानक अनुराग को देखकर मेरे पैर वहीं जम से गये. आँखें खुली रह गयीं. पिछले तीन सालों से जो क्रोध, क्षोभ और पीड़ा हिमखंडों सी मन में जमी हुई थी इन पलों की छुवन पाकर तरल हो गई और उसने आँखों की पुतलियों को ढँक लिया. सामने सब कुछ धुँधला हो गया. इससे पहले कि आँसू पलकों की सीमा लाँघ पाते, मैंने उन्हे वापस अन्दर धकेल दिया.

अनुराग की नज़र मेरे चेहरे पर ठिठक गई. "अन्दर आने को नहीं कहोगी?" उन्होने कहा.

हम ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठ गये. बिल्कुल चुपचाप. हमारे होंठ सिले हुए से लग रहे थे. आँखें एक दूसरे में कुछ ढूँढ रही थीं.

"कैसे हो?" कुछ देर बाद मैंने ही शुरुआत की.

"ठीक हूँ" बहुत धीरे से कहा. प्रतिपल उनके चेहरे पर भाव बदल रहे थे. बहुत कुछ अन्दर मथ रहा था. मुझसे दूर चले जाने का क्षोभ और आज पुनः मुझे सामने पाने की ख़ुशी, दोनों ही एक दूसरे में घुले हुए से लग रहे थे.

हम दोनों फिर कुछ देर के लिये खामोश हो गये. कुछ कहने के लिये शब्द नहीं मिल रहे थे. शायद सारे शब्द जम गये थे या जो कुछ मन की सतह से उठकर बाहर आना चाहता था उसका भार वहन कर पाने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे.

"बाम्बे से कब वापस आए"
"कल ही आया"

फिर वही खामोशी हमारे बीच पसर गई.

'कैसी हो तुम...?" मेरी आँखों में झाँकते हुए पूछा. माथे की माँसपेशियाँ इस तरह सिकुड़ गयीं कि दोनों भौहें जुड़ती सी प्रतीत होने लगी थीं...ऐसा प्रायः तब होता था जब वे मुझसे अपना प्रेम-प्रदर्शन करते थे. जब प्रेम की सघन भावनाएँ उनके हृदय तल से उठकर आँखों में तैरने लगती थी. उनके वाणी की कम्पन और शब्दों में भाव प्रवाह मुझे मंत्र मुग्ध कर देता था और मैं एकटक उन्हें निहारती थी...अनवरत सुनते रहना चाहती थी...तीन-चार साल पहले की बात है...

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"वाणी, can you please do me a favour...? डान्स क्लास से बाहर निकलते हुए अनुराग ने मुझसे पूछा.

आज पहली बार उन्होंने मुझसे व्यक्तिगत रुप से कुछ कहा था. पिछले तीन सप्ताह में हमारे बीच डांस स्टेप्स के अलावा और कोई बात नहीं हुई थी. क्लास के ख़त्म होते ही हम चुपचाप निकल जाते थे . पहले दिन के सामूहिक परिचय में सबने अपना नाम और काम के बारे में बताया था. वे किसी कंसल्टिंग कम्पनी में इलेक्ट्रिकल इंजिनियर थे.

मैंने उनके चहरे पर एक प्रश्नवाचक नज़र डाली.

"मुझे लग रहा है कि मैं सालसा के स्टेप्स ठीक से नहीं कर पा रहा हूँ. मुझे थोड़ी और प्रैक्टिस की जरुरत है" फिर थोड़ा रुक कर बोले, " if you can manage to come little early tomorrow..." उनकी आवाज़ में एक झिझक सी थी," it will be great help to me".

"yeah sure, what time?" मैंने थोड़ा सोचते हुए कहा,

"at 4 ?"

"fine, I will come..."

"thanks" उनकी आँखों में एक कृतज्ञता उभर आई.

हम इंस्टिट्यूट के कैम्पस से बाहर आ चुके थे. हाथ हिलाते हुए एक दूसरे को विदाई दी और वहाँ से निकल गये.

वैसे तो मुझे बचपन से ही नृत्य करना पहुत पसंद था किन्तु कभी औपचारिक रुप से कोई शिक्षा नहीं ले पायी थी. मध्यम वर्गीय लोगों के लिये सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिकता जीविका होती है. मेरे लिए भी थी. अब तक कैरिअर के लिये ही जद्दोजहद करते हुए २६ साल गुजर चुके थे. सामाजिक पार्टियों में लोगों को नृत्य करते देखकर एक दिन मन में उठा कि क्यों न पाश्चात्य नृत्य की थोड़ी बहुत ट्रेनिंग ले ली जाय. और मैंने इस इंस्टिट्यूट में बालरूम डांस सीखने के लिये दाखिला ले लिया था. शनिवार और रविवार को शाम में ५ बजे से ७ बजे तक दो घंटे के क्लास होते थे.

क्लास के पहले दिन जब मेरा कोई पार्टनर नहीं था...सिर्फ़ मेरा ही नहीं, बल्कि मेरी तरह कई अन्य लड़के और लडकियां भी थीं जिनका कोई पार्टनर नहीं था, डांस इंस्ट्रक्टर ने उन्हें आपस में पार्टनर बना दिया था. मेरे हिस्से में अनुराग आए थे. उन्हें देखकर मुझे अच्छा लगा था. ऊँचा कद, गेहुआं रंग, चेहरे पर एक शालीनता झलक रही थी. चौड़े सीने से चिपके हुए गहरे भूरे रंग के टी शर्ट पर सफेद रंग से अंग्रेजी का बड़ा सा ओ लिखा हुआ था.

दूसरे दिन रविवार था. हम पूर्वनिर्धारित समय पर ४ बजे पहुँच गये. दो - चार और लोग भी प्रैक्टिस कर रहे थे. आधे घंटे के प्रैक्टिस के बाद हम थोड़ा थक गये थे और क्लास के बाहर रखे बेंच पर बैठ कर सुस्ताने लगे. हमारे बीच औपचारिक बातें शुरू हो गयीं. क्या करते हो? कहाँ रहते हो? आदि. जब मैंने उन्हें अपना विजिटिंग कार्ड दिया तो पढ़कर एकदम से बोल उठे, "So, you are in IT !"

"You didnt know? मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ. मैंने आगे कहा, "पहले दिन इंट्रो में मैंने बताया तो था"

" आई ऍम सॉरी, एक्चुअली मैंने ध्यान नहीं दिया था." थोड़ा झेंपते हुए हुए बोले. "तब मुझे नहीं पता था न कि आप मेरी पार्टनर बनने वाली हैं" कहते हुए मुस्करा दिए. एकदम निश्छल मुस्कराहट...किसी बच्चे की तरह.

पाँच बजे क्लास शुरू हुआ. आज हम साथ में नृत्य करते हुए पहले से अधिक सुविधा महसूस कर रहे थे. शायद हमारे बीच से अजनबीपन का अहसास कुछ हद तक कम हो चुका था. नृत्य करते समय मेरे हाथों और पीठ को थामने में उन्हें जो पहले झिझक सी होती थी वह आज नहीं थी. आज नृत्य करने में बहुत ही आनंद आया.

क्लास से बाहर हम साथ साथ निकले. पार्किंग में कार के पास आकर थोड़ा ठिठक गये. "thanks for your co-operation" उन्होंने कृतज्ञता जाहिर की.

"mention not"

"I think, I was better today"

"much better...you did very well"

"well..we should leave now...." वे अपनी कार का दरवाजा खोलते हुए बोले.

"yeah, bye, take care "

"bye, see you on saturday" उन्होंने कार में बैठते हुए कहा.

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तीसरे दिन, जब मैंने ऑफिस में अपना मेल बॉक्स खोला तो देखा अनुराग का एक मेल था. सब्जेक्ट में "गुड मोर्निंग" लिखा था-

हेलो वाणी!
आप कैसी हैं?
आशा करता हूँ कि आप घर पर डांस प्रैक्टिस करती होंगी. आज मैंने इंटरनेट से सालसा और चा चा चा के कुछ म्यूजिक डाउनलोड किए. मुझे लगता है कि इससे हमें घर पर प्रैक्टिस करने में मदद होगी. आपको भी भेज रहा हूँ.
सच कहूँ, मैंने डांस क्लास ज्वाइन तो कर लिया था लेकिन आश्वस्त नहीं था कि कितने सप्ताह रुक पाउँगा. लेकिन अब अच्छा लगने लगा है. आपका सहयोग मुझे प्रोत्साहित करता है. अब तो मन करता है कि रोज क्लास हो.
एक सुखद दिन की कामना के साथ....
अनुराग


पढ़कर मेरे चेहरे पर एक मुस्कराहट उभर आई. पहले तो सोचा कि उन्हें मेरा मेल आई डी कहाँ से मिला. फिर याद आया कि मेरा कार्ड उनके पास है. उनका लिखना मुझे अच्छा लगा. मैंने पत्रोत्तर लिखा-

हेलो अनुराग !
सर्वप्रथम मुझे पत्र लिखने के लिये धन्यवाद. मैं बिल्कुल ठीक हूँ.
प्रैक्टिस रोज तो नहीं हो पाती है फिर भी कोशिश रहती है कि जहां तक संभव हो कर लूँ. निःसंदेह इस म्यूजिक के साथ प्रैक्टिस में सुविधा होगी. भेजने के लिये आभार.
आपका दिन बहुत ही सुखद हो.
वाणी


अगले शनिवार और रविवार की क्लासें बहुत अच्छी रहीं. दो घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं चला. हमारे और अनुराग के बीच की औपचारिकता धीरे धीरे कम होने लगी थी. हम एक दूसरे के साथ अधिक सुविधा महसूस करने लगे थे.

रविवार की क्लास से निकलने के बाद जब हम पार्किंग में पहुँचे. तो अनुराग ने कहा, "क्या आपको नहीं लगता कि हमें कभी एक साथ कॉफी पीनी चाहिए?"

"Not a bad idea." मैने हँसते हुए कहा.

"तो चलें ?" उन्होंने अपनी कार का दरवाजा खोलते हुए कहा.

"अभी ??" मैं थोड़ी हिचकिचाई. वास्तव में मैं इसके लिये पहले से तैयार नहीं थी. अनुराग ड्राईविंग सीट पर बैठ चुके थे और मेरे बैठने के लिये दरवाजा खोल दिया.

"हाँ, अभी चलते हैं..."

"ओके, लेकिन आप ऐसे ही जाएँगे" मैंने कार में बैठते हुए कहा. उनकी शर्ट पूरी तरह से भींग चुकी थी. उन्हें बहुत पसीना आता था.

"नहीं, चेंज कर लेता हूँ." उन्होंने पिछली सीट से एक शर्ट उठाकर सामने रख लिया और अपनी शर्ट का बटन खोलते हुए कहा. सीट को थोड़ा सा पीछे झुकाकर शर्ट निकाल दिया. उनके चौड़े कंधे और बलिष्ट बाहें लेम्प पोस्ट के प्रकाश से चमक उठीं. मुझे कुछ झिझक सी हुई और मैं सामने देखने लगी.

"मैं यहाँ से जाने से पहले रोज चेंज कर लेता हूँ. रास्ते में पसीने से ठण्ड सी लगने लगती है" उन्होंने दूसरी शर्ट पहनते हुए कहा, "इसलिए जब क्लास के लिये आता हूँ तो एक शर्ट रख लेता हूँ."

हम लोग कॉफी हाउस चले गये. बातें करते हुए दो घंटे कब बीत गये पता ही नहीं चला. घर लौटते लौटते देर हो चुकी थी.

रास्ते भर पिछले चार घंटों के बारे में सोचती रही. डांस करते समय एक बार जब अनुराग ने मुझे अपनी ओर खींचा था मैं अपना संतुलन खो दी थी और उनके सीने से जा लगी थी. हालाँकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ था. युगल नृत्य में प्रायः ऐसा होता है कि दोनों लोगों के शरीर एक दूसरे से छू जाते हैं. किन्तु इस बात का अहसास पहली बार हुआ था.
मैं प्रायः ही अपने पुरुष मित्रों से हाथ मिलाती थी और गले भी मिलती थी किन्तु आज उनके सीने से लगने पर एक अलग ही अनुभूति हुई.

अनुराग कम बोलते थे. स्वभाव से अंतर्मुखी थे. कॉफी हाउस में भी अधिकतर समय मैं ही बोलती रही और वे तन्मयता से सुनते रहे. उनके चेहरे पर उभरते भाव हर बात की प्रतिक्रया बड़ी आसानी से दे देते थे. उनका चेहरा एक आईने की तरह लगता था जिस पर मन का बिम्ब साफ़ उभर आता था. छोटी छोटी आँखों की चमक मन में अन्दर तक प्रकाश सी भर देती थी. मैं बात करते हुए इतना सहज महसूस कर रही थी कि जैसे वे मेरे कोई पुराने मित्र हों. उनकी बातों में और आँखों में जो मेरे लिये सम्मान दीखता था वह मन को छू लेता था.

घर पहुँची तो मेरी रूम मेट पूर्वी मेरा इंतज़ार कर रही थी. घर में घुसते ही उलाहना दी "अरे तू कहाँ रुक गई थी? " यह प्रश्न बहुत ही अपेक्षित था, “"मैंने इंस्टिट्यूट में भी फ़ोन किया था तो पता चला तुम वहां से सात बजे ही निकल गई थी"

उन दिनों मोबाइल फ़ोन बहुत महँगा हुआ करता था. आम लोगों की पहुँच से दूर था. अपना सैंडल उतारते हुए मैं सोच रही थी कि क्या जवाब दूँ कि फिर उसने कहा , "मैडम, आप से ही बातें कर रही हूँ"

अचानक मुझे कुछ शरारत सी सूझी. मैं सैंडल उतारकर बेड पर उसके बिल्कुल करीब आ गई और उसे अपनी बाहों में पकड़ कर मुस्कराते हुए बोली "डेट पर गई थी."

"हें...रिअली?" वह उछल पड़ी.उसकी आँखे बड़ी बड़ी हो गई थीं. मैं मुस्करा रही थी. अगले ही पल उसका आश्चर्य विलुप्त हो गया और बोली, "गुड जोक...डेट पर...और वो भी तू ?....सही बता न कि कहाँ इतनी देर हो गई थी"
"अरे कहीं नहीं, वो डांस क्लास में मेरा पार्टनर है न, उसके साथ कॉफी पीने चली गई थी." मैं बिस्तर से उतरकर कपड़े बदलने लगी.

"वैसे मेरे डेट पर जाने में कोई बुराई है क्या" मेरा मूड बहुत अच्छा था. मैंने उसे छेड़ते हुए कहा, "या तुझे शक है कि कोई लड़का मुझे डेट पर नहीं ले जाएगा"

"बुराई तो नहीं है..." मेरी तरफ लगभग घूरते हुए बोल रही थी, "लेकिन किसी लड़के की किस्मत चमके तब न वो तुझे डेट पर ले जा पायेगा...."

मैं जानती थी कि कभी यदि मैं गंभीरता से भी कहूँ तो भी उसे विश्वास नहीं होगा. वह जानती थी कि मेरे कई पुरुष मित्र थे. अधिकतर ऑफिस के और कुछ मेरे कालेज के. कुछ लोग जिनसे पेंटिंग के सिलसिले में जान पहचान हुई थी. मैं हमेशा ही उसके सामने ही लोगों से बात करती थी. इसलिए उसे पता था कि उन लोगों के साथ मेरे संबंधों की सीमाएँ तय थी. कभी कभी वह कहती थी," तेरे इतने फ्रेंड्स हैं, क्या इनमे से कभी किसी ने तुझे अट्रैक्ट नहीं किया?"
बहरहाल पूर्वी से अपनी तारीफ़ सुननी अच्छी लगी थी मुझे.

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क्लास में बताया गया था कि अगले हप्ते से वर्कशॉप शुरू होगा. डेढ़ महीने के वर्कशॉप के बाद सिरीफोर्ट आडिटोरियम में लाइव परफोर्मेंस होना था. अगले हप्ते से क्लास का समय एक घंटे बढा दिया गया था.

उस एक दिन के बाद से अनुराग का कोई मेल नहीं आया था. फिर भी जब अपना मेल बॉक्स खोलती थी तो अचेतन मन में कहीं एक प्रतीक्षा सी रहती थी. आजकल ऑफिस में काफी वर्कलोड बढ़ गया था और मुझे रात के १२-१ बजे तक काम करना पड़ता था.

शाम के पाँच बजने वाले थे. मैं ऑफिस में ही थी. काम में व्यस्त थी कि मेरे फ़ोन की घंटी घनघना उठी. मैंने फ़ोन उठाया.

"hello...."

"हाय वाणी, how are you?

"ओह अनुराग, is this you !" मैं पहली बार अनुराग को फ़ोन पर सुन रही थी. लेकिन उनकी भारी भरकम आवाज़ फ़ोन पर भी बिल्कुल वैसी ही थी जैसी कि सामने होती है. वैसे भी उनका मेरे नाम को उच्चारित करने का तरीका दूसरों से बिल्कुल अलग होता था.

"अरे आपने पहचान लिया! मैंने तो सोचा था कि कुछ देर तक नहीं बताउँगा कि मैं कौन हूँ"

"you wanted to tease me...?" मैंने हँसते हुए कहा, "anyway, its good to hear from you, how are you?"

"I am absolutely fine...but you are not sounding well...what happened?"

"कुछ ख़ास नहीं...थोड़ा सा कोल्ड हो गया है. "

"ओह, रात में आइस क्रीम खा ली थी ?" अनुराग ऐसे बात कर रहे थे जैसे किसी छोटी बच्ची के साथ बात कर रहे हों.

"नहीं आइस क्रीम तो नहीं खाई थी. शायद मौसम के कारण हो गया होगा"

"हाँ मौसम तेजी से बदल रहा है... अपना ख़याल रखा करिए न" हालाँकि उन्होंने एक बहुत ही सामान्य और औपचारिक बात कही थी लेकिन उनका ध्यान देना अच्छा लगा.

हम थोड़ी देर तक बातें करते रहे. फिर मैंने कहा कि मुझे कुछ जरूरी काम निपटाना है और फ़ोन रख दिया था. अनुराग ने बताया कि उन्हें कल सुबह की फ्लाईट से तीन दिन के लिये मुंबई जाना है कंपनी के काम से. जानकार मुझे ख़ुशी नहीं हुई. हालाँकि हम साप्ताहांत में ही मिलते थे और वह भी २-३ घंटे के लिये ही, फिर भी उनका दिल्ली से जाना पता नहीं क्यों अच्छा नहीं लग रहा था.

दूसरे दिन ऑफिस में काम करते करते अचानक अनुराग की याद आ गई. मैंने कुछ सोचते हुए, एक स्केच जो काफी पहले बनाया था अनुराग को मेल कर दिया और साथ में यह भी लिखा- इस स्केच को देखकर बताईये आपके मन में बनाने वाले के बारे में क्या धारणा बनती है. उस दिन उनका कोई उत्तर नहीं आया.

अगले दिन रात के ११ बजे मैं काम कर रही थी कि अनुराग का मेल आया.

"आज ही आपका मेल देखा. कल पूरे दिन मीटिंग में व्यस्त रहा बिल्कुल भी अवकाश न मिल सका था. आज भी दिन भर काफी व्यस्तता रही.

आपका स्केच बहुत ही सुन्दर लगा. बहुत ही कुशलता से आपने मनोभावों को व्यक्ति के चहरे पर उकेरा है. पहले कभी नहीं बताया कि आप पेंटिंग भी करती हैं. चलिए किसी दिन आपसे अपना पोर्ट्रेट बनवाऊंगा. बनाएँगी न आप.

अभी आपकी तबियत कैसी है. जल्दी से पूरी तरह से ठीक हो जाइए. इस हप्ते से डांस क्लास में अधिक मेहनत करना पड़ेगी "


मैंने उत्तर लिखा –

"आपका मेल पाकर प्रसन्नता हुई. आशा है कि वहाँ आपका काम अच्छा चल रहा होगा.
मैं अब पूरी तरह से स्वस्थ हूँ. स्केच आपको अच्छी लगी. आभार.
यदि आप मुझे समर्थ समझते हैं तो अवश्य बनाउँगी आपकी पोर्ट्रेट. किन्तु उसके लिये काफी समय निकालना पड़ेगा आपको. उतना समय निकाल पायेंगे आप?
आपने मेरा एक प्रश्न अनुत्तरित ही छोड़ दिया."

तुरंत ही उनका मेल आया-

"शायद मैं उस प्रश्न से बचना चाहता था. वास्तव में पेंटिंग मुझे सबसे मुश्किल कला लगती है और पेंटिंग देखकर बनाने वाले के बारे में कुछ भी कह पाना मेरे लिये बिल्कुल भी संभव नहीं है. हाँ स्केच में जिस व्यक्ति का भाव उकेरा गया है उससे लग रहा है कि वह एक निर्विकार अवस्था में हैं. जैसे सब कुछ खो चुका है और अब आने वाले पलों को तटस्थता से देख रहा है.
हो सकता है बनाते समय पेंटर की मनोस्थिति कुछ वैसी रही हो. शायद मन में कुछ अंतर्द्वंद चल रहा हो.
समय की कोई समस्या नहीं है. आप जितना समय चाहेंगी मैं निकाल लूँगा. आप तैयार रहिये.
अभी तक काम कर रही हैं ?"


"हाँ, आजकल थोड़ा वर्क लोड बढ़ गया है. कुछ देर तक और काम करूँगी. आप अभी तक सोये नहीं. सो जाइए आपको सुबह ऑफिस भी जाना होगा?

"नीद नहीं आ रही है"

" नीद भला क्यों नहीं आ रही है?"

"पता नहीं क्यों नहीं आ रही है. यूँ लग रहा है जैसे कहीं कुछ गुम गया है"

"क्या गुम गया है , बताइये. मैं ढूँढने में मदद करूँ ?

"अभी तो मुझे स्वयं ही नहीं पता चल पा रहा है. जैसे ही पता चलेगा आपको अवश्य बताउँगा."

"अच्छा, आप अब सो जाइए. बहुत रात हो चुकी है. मुझे भी कुछ काम निपटाना है.

शुभरात्रि और सुखद नीद की कामना के साथ....."

"शुभ रात्रि"

अनुराग से बात करना अच्छा लगा था.

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अगले दिन अनुराग वापस दिल्ली आ गये. शाम को मुझे फ़ोन किया. अभी शनिवार आने में एक दिन बाकी था. मन हो रहा था कि बीच का एक दिन ख़त्म हो जाय. शनिवार और रविवार आकर कब चला गया, पता ही नहीं चला. रविवार को जब शाम में घर पहुँची तो लग रहा था जैसे पिछले दो दिन किसी स्वप्न की तरह उड़ गये थे.

"एक बात बता..." खाना खाते हुए पूर्वी ने बहुत ही गंभीरता पूछा "क्या, तेरी वो डेट वाली बात सही थी?"

"???....." मेरी प्रश्नवाचक नज़रें उसकी तरफ उठ गयीं, "ऐसा क्यों पूछ रही है ?"

"इसलिए कि तू कुछ बदली बदली सी लग रही है आजकल. चेहरे पर एक अलग ढंग की चमक सी दिखाई देती है. पहले से कहीं अधिक खुश लगती है. किसी बात पर अब तू खीझती भी नहीं है......." कुछ देर रूक के बोली, "आज भी तू देर से आई"

"अरे वो मैं तुझे बताना भूल गई थी. इस हप्ते से वर्कशॉप शुरू हो गया है और अब क्लास की टाइमिंग ५ से ८ हो गई है.." मैंने बात को सम्भाला, "और मैं डांस को काफी एन्जॉय कर रही हूँ. शायद वही ख़ुशी मेरे चेहरे पर तुझे दिखाई दे रही हो' मैंने थोड़ा मजाक के लहजे में कहा.

जब बिस्तर पर लेटी तो पूर्वी की बात मन में घूमने लगी. मैं सोचने लगी, क्या वास्तव में मेरे अन्दर कोई परिवर्तन हो रहा है? यदि हो रहा है तो उसका कारण क्या है. अनुराग की तरह तो मेरे और भी फ्रेंड्स हैं जिनसे बात करना मुझे अच्छा लगता है. जिनके साथ मैं घंटों गप्पें मारती हूँ. फिर पूर्वी को आज ऐसा क्यों लग रहा है?

अनुराग के साथ हुए अपनी बातों के बारे में सोचने लगी. अभी तक तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जिसे असहज और असामान्य कहा जा सके. उन्होंने कोई बात ऐसी नहीं कही है तो अस्वाभाविक हो और जिससे मेरे प्रति उनके मन में किसी अतिरिक्त आकर्षण का भान हो सके. एक मित्र की तरह ही तो हमने अपनी बातें एक दूसरे से कही है.

और मैं......? मुझे उनका मुंबई जाना अच्छा क्यों नहीं लगा था? शनिवार की प्रतीक्षा का कारण मात्र डांस ही रहता है? उनका होना क्यों मेरे आस पास को भर सा देता है?

"नहीं ऐसा कुछ नहीं है......" मैंने स्वयं को समझाया, "हमारे चारो तरफ जो भी वातावरण उत्पन्न होता है उसका प्रभाव हमारे मन पर पड़ता ही है. किसी भी नए रिश्ते में एक गर्माहट होती ही है. हमारे बीच अब तक जो भी रिश्ता बन पाया है वह बिल्कुल सहज है. मन में उभरी प्रतिक्रियाएँ सदैव एक सी नहीं हो सकती हैं क्योंकि वे परिस्थितिजन्य होती हैं...आस पास के व्यक्तियों के व्यवहारों से प्रभावित होती हैं. अनुराग से मिलना उस समय हुआ था जब मैं नृत्य को लेकर उत्साहित थी. उनके व्यक्तित्व की सरलता ने हमारे संबंधों को सहज बना दिया है..." सोचते सोचते न जाने कब नीद आ गई.

रात भर सपने में डांस फ्लोर घूमता रहा. अनुराग की बाहों में मैं तकली की तरह नाच रही थी. डांस रूम से निकलकर कभी बगीचे के झुरमुटों के नीचे...कभी किसी बर्फ से ढँके पर्वत के शिखर पर...कभी हरे भरे घास के मैदानों में...कभी नदी के पानी पर पड़ती सूरज की झिलमिलाती चंचल किरणों पर. सुबह उठी तो मन एक अनजान मिठास से भरा हुआ था.

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दिन बहुत तेजी से निकल रहे थे. दो सप्ताह कब बीत गये पता भी नहीं चला. इस बीच अनुराग से फोन पर और इ-मेल से बातचीत की आवृत्ति बढ़ गई थी. जिस भी रुप में वे मेरी जिन्दगी में थे, सुखद लग रहा था. शायद मुझे उनकी आदत सी पड़ने लगी थी.

उस शनिवार को १५ अगस्त था. डांस क्लास बंद था. सुबह के काम निपटाते निपटाते १२ बज गये थे. हमलोग आज देर से भी उठे थे. छुट्टी के दिन प्रायः ऐसा होता था कि हम देर तक सोते रहते थे.

पूर्वी को जाना था. उसके कुछ दूर के रिश्तेदार मैदान गढ़ी में रहते थे. वहाँ किसी का एंगेजमेंट था. मुझे भी जाने को कह रही थी पर मेरा मन नहीं हुआ. मैं आराम करना चाहती थी. वैसे भी पिछले कई सप्ताह बहुत व्यस्त जा रहे थे. नाश्ता करके वह चली गई. कुछ खाली खाली सा लग रहा था.

नाश्ता करके मैं बालकनी में आ गई. आसमान पर बादल घिर रहे थे. धूप बिल्कुल भी नहीं थी. वहाँ खड़ा होना अच्छा लगा. हमारा फ़्लैट ग्यारहवीं मंज़िल पर था. आसमान दूर तक दिखाई दे रहा था . सफेद और काले बादलों के छोटे छोटे टुकड़े इधर से उधर भाग रहे थे . चिड़ियों के कुछ छोटे छोटे झुण्ड हवा में अठखेलियाँ कर रहे थे. मन किया कि अभी बरसात होने लगे और मैं उसमे भीगूँ . बारिश मुझे बेहद पसंद है. सामने सड़क पर गाड़ियों की कतारें लगी हुई थीं. बायीं तरफ एक बड़ा सा पार्क था. उसके बीच में घास से ढका एक मैदान था जिसमे कुछ बच्चे खेल रहे थे. काफी देर तक मैं खड़ी होकर बाहर का दृश्य देखती रही.

पानी नहीं बरसा और कुछ देर में बादल भी छँटने लगे. बादलों के बीच से सूर्य देव झाँकने लगे. मैं अन्दर आ गई. एक किताब उठाकर बिस्तर में घुस गई. पढ़ते पढ़ते नीद आ गई.

फोन की घंटी सुनकर नीद खुली तो देखा सामने की दीवाल घडी में २.३० बज रहे थे. मैंने उठाया.
"हेल्लो......"
"सो रही थीं ?"
"अनुराग, आप !.....हाँ सो रही थी"
"ओह, मैंने आपको डिस्टर्ब कर दिया"
"नहीं, मैं पहले ही काफी सो चुकी हूँ...लगभग डेढ़ -दो घंटे. "
"ओके, फिर ठीक है."
'आप क्या कर रहे हैं"
"कुछ ख़ास नहीं, अभी अभी लंच किया... आपने लंच कर लिया ?"
"नहीं, अभी कहाँ किया...ब्रेकफास्ट करके ही सो गई थी. अब करूँगी"
"वैसे अभी आपका कोई प्रोग्राम है? आई मीन, कहीं जाने का या कोई स्पेसिफिक वर्क?"
"नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं है...क्यों पूछ रहे हैं"
"क्या खयाल है अगर हम कोई प्ले देखने चलें...आपको प्ले देखना पसंद है? "
"हाँ, प्ले देखना पसंद तो है मुझे...लेकिन कौन सा प्ले देखने जाएँगे...और कहाँ"
"कामिनी थियेटर, मंडी हाउस. हास्य नाट्य महोत्सव चल रहा है."
"कितने बजे का शो है ?"
"४.३०"
"ओके"
"मैं ऐसा करता हूँ, आपके पास मैं ३.३० तक पहुंचता हूँ. हमें वहाँ से मंडी हाउस पहुँचने में आधे घंटे लगेंगे.
"ठीक है, पर ....." मैंने कुछ सोचते हुए कहा, " आपको मेरे यहाँ तक आने में ढूँढना पड़ेगा. एक काम करते हैं, मैं नॉएडा मोड़ तक ऑटो से आ जाती हूँ. पाँच मिनट लगेगा मुझे. मोड़ के ठीक पहले वाले बस स्टैंड पर मिलते हैं."
"हाँ यह बेहतर रहेगा....मैं ३.३० पर आपको वहीं मिलता हूँ."

अनुराग ने जब प्ले के लिये जाने को कहा तो पहले तो कुछ हिचक सी हुई पर उन्होंने कुछ सोचने का समय ही नहीं दिया था. अच्छा ही हुआ नहीं तो घर में भी बैठकर क्या करती. शायद कोई स्केच बनाती.

लंच करने का मन नहीं हुआ. मैं तैयार होने लगी. सुबह बाल धोया था. अभी भी पूरी तरह से सूखे नहीं थे. मैंने कंघी करके जूड़ा बना लिया. सफ़ेद रंग का वन-पीस ड्रेस पहना.

जब स्टैंड पर पहुँची तो देखा अनुराग वहाँ पहले से ही थे. शायद मुझे फोन करने के तुरंत बाद ही निकल लिये होंगे. अपनी कार स्टैंड से थोड़ा पहले खड़ी करके उससे टिककर खड़े थे.

जब मुझपर नज़र पड़ी तो उनकी आँखों में विस्मय और ख़ुशी दोनों साफ़ झलक रहे थे. होठ कुछ देर तक खुले रह गये थे. आँखें मुझ पर जम गई थीं.

डांस क्लास में मैं हमेशा बालों की एक छोटी बना कर रखती थी. बालों को खुला रखने पर कमर तक चले जाते और उलझ जाने का डर रहता था. डांस करते समय असुविधा भी होती. और जूड़ा नहीं बनाती थी क्योंकि उसके खुल जाने का डर रहता था. आज वे मुझे पहली बार बिना चोटी के देख रहे थे.

उनका इस तरह से देखना मुझे अच्छा लगा.
"क्या हुआ ?" मैंने मुस्कराते हुए पूछा.
"how beautiful ! तुम कितनी सुन्दर लग रही हो ....." उनकी नज़रें मेरे चेहरे में खो गई थीं. आज पहली बार उन्होंने मुझे तुम कहकर संबोधित किया था.
'रिअली ? Thank you so much.....अब चलें?' मैने हँसते हुए कहा.
'हाँ, श्योर..." जैसे अचानक नीद से जाग गये हों.
हम कार में बैठ गये.

6.30 पर शो ख़त्म हुआ. कॉमेडी प्ले था. बहुत ही मनोरंजक रहा. इंडिया गेट के सर्किल से गुजरते हुए अनुराग ने अचानक कार पार्किंग की ओर मोड़ दी और बोले, "चलिए, आइस क्रीम खाते हैं, फिर चलेंगे. देर तो नहीं हो रही है आपको?"

"नहीं देर नहीं हो रही है...चलिए."

कार पार्क करके हम आइस क्रीम खरीदे और बेंचनुमा लगे पत्थरों पर बैठकर खाने लगे. अभी दिन थोड़ा बाकी था किन्तु आसमान में बादल छाये हुए थे इसलिए अन्धेरा होने लगा था. हालाँकि लेम्प पोस्ट का प्रकाश हमारे आस पास के अँधेरे को छिन्न कर रहा था.

अचानक फुहारें गिरने लगीं..छोटी छोटी बूँदें ओस की तरह चेहरे पर झरने लगी थीं. पिकनिक मनाते लोग अपनी चटाईयाँ और चादर समेटने लगे थे. इधर उधर बैठे और खड़े लोग जल्दी जल्दी अपने वाहनों की ओर जाने लगे.

"You know, I love rain...." मैं खड़ी हो गई. मेरा चेहरा आसमान की ओर था. दोनों हाथ फैलाकर बारिश की बूँदों को उनमे समेटने की कोशिश करने लगी. मेरी आँखें बंद थीं. फुरारें मेरे चेहरे को भिगो रही थीं. मैंने अनुराग की ओर बिना देखे ही कहा, "कभी कभी लगता है कि मैंने अपनी जिन्दगी का कुछ हिस्सा इन बादलों को उधर दे रखा है. जब भी ये बरसते हैं तो लगता है जिन्दगी बूँद बूँद झर रही है और मुझमे समा कर मुझे पूरा कर रही है"

"या फिर ये बूँदें तुम्हारे स्पर्श में अपना जीवन पाना चाहती हैं" अनुराग कि बातें सुनकर मैंने आँखें खोल दी. वे अभी भी बैठे थे उनकी दृष्टि मेरे चेहरे पर जमी थी. अचानक बादल गरजने लगे और बारिश तेज हो गई. मोटी मोटी बूँदें गिरने लगी थीं.

"चलो अब चलते हैं...बारिश तेज हो गई है..." वे उठ खड़े हुए और चलने को उद्यत हुए.
वे अभी एक पैर बढाए होंगे कि मैंने उनका हाथ पकड़ लिया. वे रुक गये. मेरी तरफ मुड़े.

"मुझे भींगना है...' वे थोड़े विस्मित से खड़े रहे. होठों पर मुस्कराहट और आँखों में सहमति थी. बारिश की बूँदें तेजी से हमें भिगोने लगी थीं.

फिर उन्होंने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये और बोले, "हे, लेट्स डांस..."

'ग्रेट !!!" मैं उनके करीब आ गई. हमारे पैर हरी घास पर थिरकने लगे. बारिश पूरे जोरों से होने लगी थी. बूँदें मेरे शरीर को भिगोने के बाद मेरे मन में रिस कर उतरने लगी थी. एक आस की पौध जिस पर जाने कब से वक़्त की गर्द जमी हुई थी, उन बूँदों से धुलने लगी और उसकी हरी पत्तियाँ चमकने लगी थीं.

हम दस मिनट तक नाचते रहे होंगे. फिर अचानक वे रुक गये और बोले, "अब चलना चाहिए हमें". मैंने देखा इंडिया गेट के नीचे खड़े गार्ड और पुलिसमैन...पेड़ों के नीचे आश्रय लिये कुछ लोग, सबकी निगाहें हमारी तरफ थीं.

हम कार की तरफ बढ़े. मिट्टी गीली होने लगी थी और मेरे सैंडल का नुकीला हील उसमे धँसने लगा था. अनुराग ने देखा मुझे चलने में परेशानी हो रही है. उन्होंने मुझे अपनी बाहों में उठा लिया. ऐसा नहीं था कि यह पहली बार था जब उन्होंने मुझे अपनी बाहों में उठाया हो. डांस करते समय कितनी ही बार उन्हें मुझे लिफ्ट करना पड़ता था.

'अरे..ये क्या कर रहे हो...मैन चल लूँगी..."
"dont worry ... बस सड़क तक...." उन्होंने हँसते हुए कहा
कार के पास लाकर उन्होंने मुझे उतार दिया.
"ओह, तुम्हारे कार की सीटें भीग जाएँगी"
'नो प्रॉब्लम, कार हमारे लिये है हम कार के लिये नहीं" दरवाजा खोल कर वे अन्दर बैठते हुए दूसरी तरफ का दरवाजा खोल दिया. मैन अन्दर बैठ गई. हम चल पड़े.
'i cant believe, but it was wonderful' मेरी तरफ देखकर कहा उन्होंने.

'सब तुम्हारे कारण ही हुआ, अच्छा हुआ जो तुमने प्रोग्राम बनाया" बारिश का पानी मेरे बालों से रिसकर अभी भी मेरे चेहरे और पीठ पर आ रहा था. उन्होंने डैश बोर्ड से निकाल कर एक तौलिया दिया. मैं उससे अपने बँधे बालों को और ऊपर से ही सुखाने का प्रयास करने लगी कि कम से कम पानी न टपके.

आधे घंटे में हमलोग मयूर विहार पहुँच गये. मेरे बिल्डिंग के नीचे सड़क पर कार खड़ी कर दी. बारिश अब हल्की हो चुकी थी.

'चलो ऊपर, कॉफी पीकर जाना"
"आज नहीं, देखो कितना भींग चुका हूँ. ठण्ड सी लग रही है. कॉफी फिर कभी पीने आऊँगा"
"ओके, मैं चलूँ" मैंने भी जिद नहीं किया. शायद पूर्वी आ चुकी होगी.
उन्होंने हाँ में सिर हिलाया. मैंने दरवाजा खोलकर एक पैर बाहर रखा था कि वे बोल पड़े, "सच कहूँ, it was amazing ..."
"क्या...बारिश ?" मैंने उनकी तरफ देख कर कहा.
"आज की पूरी शाम... thanks for giving me such a beautiful evening."
मैंने मुस्करा भर दिया. उनकी आँखों में मैंने एक उगते हुए सूरज की लालिमा देखी. उतरकर दरवाजा बंद कर दिया और हाथ हिलाकर उन्हें विदाई दी. उनके जाने के बाद कुछ देर वहीं यूँ ही खड़ी रही.

पूर्वी वापस नहीं आई थी. उसका फोन आया कि वो आज रात में नहीं आ पायेगी. शावर लेने के लिये जब बाथरूम में घुसी तो बरबस ही आईने के सामने कुछ देर के लिये ठिठक गई और अपने चेहरे को देखने लगी. यूँ लगा कि अनुराग के आँखों की लालिमा ने मेरे चेहरे को लाल कर दिया है. क्या था यह सब जो इतना सुखद था ?

शावर से गिरते पानी की फुहारें जब चहरे पर गिरीं तो लगा कि कुछ देर पहले जिए हुए पल वापस लौटकर आगये हैं... मूसलाधार बारिश...हरी हरी घास और मैं भींगते हुए नाच रही हूँ.

XXXXXXXX

अगले दिन रविवार को डांस क्लास से जब बाहर निकले तो लान से गुजरते हुए एक बेंच पर हम बैठ गये. कुछ देर तक डांस स्टेप्स के बारे में बातें करते रहे. जब हम चलने को तैयार हुए तो उन्होंने कहा, "अगर तुम्हारे नॉर्मल वोर्किंग आवर्स होते तो हम वीक डेज़ में भी कभी शाम को मिल सकते थे न" मैं उनकी तरफ देखने लगी थी. ऐसा लगा कि जैसे कोई बच्चा बड़ी मासूमियत से चोकलेट माँग रहा हो.

'हम अब भी मिल सकते हैं... शाम में मैं कभी कभी जब वर्क लोड ज्यादा न हो तो एक आध घंटे निकाल सकती हूँ. लेकिन हम ऑफिस में ही मिल सकते हैं."

"thats great !" उनकी आँखों में चमक सी आ गई थी.

परफोर्मेंस में अभी तीन सप्ताह बाकी थे. हम पूरा मन लगाकर अभ्यास कर रहे थे. क्लास में भी हम सबसे अच्छे स्टुडेंट्स में से एक थे. पहली बार स्टेज पर हम नृत्य करने के विचार से मन उत्साह से भरा था. अनुराग कहते थे कि हमारा परफोर्मेंस सबसे अच्छा होगा.

बीतते दिनों के साथ साथ हम एक दूसरे को और अधिक जानने लगे थे. हमारा रिश्ता एक प्रगाढ़ता लेने लगा था. अनुराग कभी कभी शाम को ऑफिस आ जाते थे और हम कैंटीन में बैठकर बातें करते. उनकी सानिध्यता बहुत ही सुखद लग रही थी.

अनुराग में कई बातें मुझे बहुत पसंद थीं. उनकी आकर्षक देहयष्टि से लेकर उनका अदम्य आत्मविश्वास और विचारों की दृढ़ता सब मुझे आकर्षित करती थीं. पहली बार जब हम किसी बात पर सहमत नहीं हो पाए थे और बहस करते करते माहौल थोड़ा गर्म हो गया तो वे बोले- हम दो अलग अलग व्यक्ति हैं. हमारा व्यक्तित्व भिन्न है. इसलिए आवश्यक नहीं है कि हम सदा एक दूसरे से सहमत हो सकें, आवश्यक यह है कि हम एक दूसरे के विचारों का सम्मान कर सकें. और दूसरे पल हम दोनों ही अपने अपने वैचारिक उत्तेजना से बाहर आ गये थे.

हमारा व्यक्तित्व धीरे धीरे घुलकर एक दूसरे में मिलने लगा थ

इस रविवार को परफोर्मेंस होना था. शुक्रवार को हमने ऑफिस से छुट्टी लेकर प्रक्टिस की. मैं चाहती थी कि परफोर्मेंस में कोई भी त्रुटि न हो. शाम को जब घर पहुँची तो शरीर थोड़ा भारी भारी सा लगा. रात में बुखार आ गया. घर पर पड़ी दवा ली. लेकिन दूसरे दिन सुबह बुखार तेज हो गया तो डॉक्टर के पास गई. उस दिन डांस क्लास जाने की हिम्मत नहीं हुई.

पाँच बजे डांस क्लास से अनुराग का फ़ोन आया. मैंने उन्हें बताया कि बुखार आ गया है. सुनकर वे पल भर के लिये बिल्कुल खामोश हो गये थे. फिर बोले , "अच्छा, मैं आता हूँ".

अनुराग जब आए पूर्वी घर पर ही थी. मेरा मन डूब रहा था कि इतनी मेहनत करने के बाद ऐन वक़्त पर यह क्या हो गया. बहुत ही बुरा लग रहा था. अनुराग को भी बहुत बुरा लगेगा. वे भी कितने उत्साहित थे. मैं उन्हें उदास नहीं देखना चाहती थी. जब वे कमरे में घुसे तो पूर्वी भी साथ में थी. वे एक कुर्सी खींचकर मेरे सिरहाने के पास बैठ गये. मैं थोड़ी ऊपर खिसक कर बैठने की कोशिश करने लगी. पर उन्होंने बैठने से मुझे रोक दिया. पूर्वी मेरे बेड पर ही बैठ गई.

"क्या हुआ...लगता है शो का ज्यादा टेंशन ले लिया..." वे मुस्कराते बोले. फिर मेरा हाथ छूकर देखा "अभी भी बुखार है"

"सुबह से बुखार एक बार भी पूरी तरह नहीं उतरा. कम हो रहा है फिर आ जा रहा है." पूर्वी ने कहा. फिर अफ़सोस से बोली , "अब तो लगता नहीं कि कल ये जा पायेगी"

"कोई बात नहीं, पहले ये ठीक हो जाएँ. परफोर्मेंस तो सेकेंडरी चीज है." ऐसा नहीं लगा कि उन्हें कल के परफोर्मेंस के न हो पाने का कोई अफ़सोस हो रहा हो.

"अनुराग जी, आप बातें करिए. मैं आपके लिये कॉफी लाती हूँ " कहते हुए पूर्वी उठ खड़ी हुई.

"how are you feeling now?" अनुराग की नज़रें मेरे चेहरे पर टिकी थीं.

"मेरे कारण तुम भी नहीं परफोर्म कर पाओगे...." कहते हुए अनायास मेरी आँखें भरभरा आयीं.

अनुराग ने मेरे माथे पर अपनी हथेली रख दी और बोले, " hey! Dont be silly. वो इतना इम्पोर्टेंट नहीं है. पहले तुम जल्दी से ठीक हो जाओ. उस बारे में बिल्कुल भी न सोचो." मैंने अपनी आँखें बंद कर ली थी. उनकी हथेलियों का स्पर्श मेरे अन्दर समा रहा था. यूँ लग रहा कि जैसे चन्दन का लेप मेरे माथे पर लगा हो और वह मेरे ताप को सोख रहा हो. एक अजीब सा सूकून मिल रहा था. जी कर रहा था कि वे ऐसे ही अपनी हथेली मेरे माथे पर रखे रहें. वे आगे बोले, "हमने किसी परफोर्मेंस या कॉम्पिटीशन के लिये तो क्लास नहीं ज्वाइन किया था. हम तो सिर्फ बेसिक सीखने के लिये गये थे और न ही हमें इस फिल्ड में अपना कैरियर बनाना है" मैंने आँखे खोल दी थी. अपलक उन्हें देखने लगी.

"so, pl dont think and dont worry about that. We enjoyed a lot. हम वहाँ जितना हासिल करने के लिये गये थे उससे कहीं बहुत अधिक हम पा चुके हैं." उन्होंने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा, "है न ?"

"हूँ..." मैंने सिर हिलाते हुए धीरे से कहा. मेरे होठों पर एक मुस्कराहट उभर उभर आई थी.
तभी पूर्वी कॉफी लेकर आ गई.

"तुम भी पियोगी ना? " एक स्टूल पर केतली और कप रखते हुए बोली.

'why not...मैं पहली बार आया हूँ. गेस्ट का साथ तो देना पड़ेगा न" अनुराग ने हँसते हुए कहा, 'वैसे भी कॉफी नुक्सान करने वाली चीज नहीं है"

अनुराग ने मुझे सहारा देकर तकिये के सहारे थोड़ा बिठा दिया. मैं लगभग अधलेटी थी. हम तीनो ही कॉफी पीते हुए बातें करने लगे. तभी डांस इंस्टिट्यूट से फोन आया. हमारे डांस टीचर पीयूष ने किया था. उसे मैंने बताया कि कल मेरा परफोर्म कर पाना संभव नहीं है. फोन रखने के बाद मैं अनुराग से बोली, "पीयूष ने तुम्हें पल्लवी के साथ परफोर्म करने का ऑफर दिया था ?" वास्तव में पल्लवी का पार्टनर अभी परफोर्म करने के लिये पूरी तरह तैयार नहीं था. इसलिए पीयूष ने उसे अगले महीने के वर्क शॉप के बाद परफोर्म करने को बोला था.

"हाँ कहा था उसने...लेकिन"
"लेकिन क्या...तुमने मना क्यों कर दिया ? "
"मैंने उसके साथ एक दिन भी डांस नहीं किया है. सिंक करने में दिक्कत होती'
"you are too much... सिंक करने में क्या दिक्कत होती. सेम डांस करना है." मैं वास्तव में समझ नहीं पा रही थी कि उन्होंने क्यों मना कर दिया था. मैं आगे बोली "और अगर कोई दिक्कत थी भी तो आज का वक़्त था और कल भी सुबह तुम उसके साथ थोड़ा प्रक्टिस कर सकते थे."
"चलो अब उस बात को छोड़ो...पीयूष ख़ुद उसके साथ परफोर्म करेगा" उन्होंने बात टालते हुए कहा.
'तुम भी न..."
"देखिये पूर्वी जी, आज मैं पहली बार इनके घर आया हूँ और ये मुझे डांट रही हैं" पूर्वी की तरफ देखते हुए हँसकर बोले.
"डाँटने में तो ये उस्ताद है. बुखार में भी अभी कोई झगड़ा करने को मिल जाय तो बुखार भाग जाएगा" पूर्वी ने हँसते हुए कहा, "गेट के दरबान से लेकर एस्टेट मेनेजर तक सभी कांपते हैं इससे" हम तीनो ही हँसने लगे.

तभी डोरबेल बजी. "कौन आ गया इस वक़्त" पूर्वी ने उठते हुए कहा.

"आज तुम पहली बार आए और मैं इस हाल में हूँ..."

"कोई बात नहीं, ठीक हो जाओगी तो फिर आऊँगा और अगली बार कॉफी तुम्हारे हाथ का पियूँगा" अनुराग ने मुस्कराते हुए कहा.

"ओह्हो तुम हो...आज बड़े दिनों बाद दर्शन दिए" ड्राईंग रूम से पूर्वी की आवाज़ आई.

'हाँ भाई...खुद तो कभी बुलाते नहीं और आने पर ताना देते हैं. यह भी ठीक है" अंकित की आवाज़ आई, "अन्दर आने की इजाज़त है या वापस लौट जाऊं"

अंकित मेरे सबसे अच्छे मित्रों में से एक थे. या यूँ कहें कि सबसे अच्छे मित्र थे. हमने पिछली कंपनी में डेढ़ साल तक एक साथ काम किया था. बहुत ही जिंदादिल और मजाकिया इंसान थे. कैसा भी माहौल हो उनके आने से हँसी से भर जाती थी.

"अब आ गये हैं तो कॉफी पीकर ही जाईयेगा. अन्दर आ जाईये" पूर्वी ने कहा. वह भी अंकित से बहुत घुली मिली थी.
"कहाँ हैं मैडम साहिबा?"
"बेडरूम में हैं. आइये...." पूर्वी उन्हें ले आई.
"गुड एवेनिंग....." दरवाजे से घुसते ही बोले, "सुना है कि आजकल आपकी बुखार से दोस्ती हो गई है " मैंने मुस्करा भर दिया.
अनुराग को देखकर थोड़ा ठिठके. पूर्वी ने परिचय करवाया.

"वैसे शुक्र है इस बुखार का कि कम से कम आने के लिये मुझे निमंत्रण का इंतज़ार तो नहीं करना पड़ा" कुर्सी पर बैठते हुए बोले.

हम लोग काफी देर तक बातें करते रहे. मैं बहुत कम बोल रही थी. ज्यादातर समय मेरी नज़रें अनुराग के चेहरे पर थीं.

जब अनुराग और अंकित चले गये तो थोड़ा खालीपन सा हो गया था. अनुराग का आना बहुत ही अच्छा रहा. मेरे मन पर जो एक बोझ सा था वो उतर गया था. आँखें बंद करके लेटी तो माथे पर उनका स्पर्श अभी भी महसूस हो रहा था और उनकी बात "हम वहाँ जितना हासिल करने के लिये गये थे उससे कहीं बहुत अधिक हम पा लिये हैं" मन में एक गुदगुदी सी कर रही थी.

दूसरे दिन अनुराग ने एक गुलदस्ता भेजा. पूर्वी जब मेरे पास लेकर आई मैं तुरंत जगी ही थी. रंग बिरंगे फूलों का गुलदस्ता था ऊपर से पारदर्शी पोलिथीन से ढंका हुआ. अन्दर एक कार्ड था. मैंने पोलिथीन हटाया और कार्ड निकाला. लिखा हुआ था -

Get Well Soon
-----anurag

पूर्वी ने कार्ड मुझसे ले लिया और पढ़कर बोली, "ये जनाब तो शब्दों के बड़े कंजूस निकले. इतने बड़े कार्ड में सिर्फ तीन शब्द!" फिर मेरे पास बैठते हुए बोली, "वैसे कितनी इंटेंस आँखें हैं उनकी...शब्दों की उन्हें जरुरत ही नहीं पड़ती होगी." मेरी आँखों में झाँकते हुए कह रही थी. मैं चुप रही. मेरी आँखों में उनका चेहरा उभर आया था.

"तेरा तो मुझे पता नहीं, but I can bet, he is in love with you...?" वह मुझे छेड़ती हुई बोली. मेरे होठों पर एक मुस्कराहट उभर आई. उसकी बातें मुझे गुदगुदा रही थीं.

पूरी तरह ठीक होने में तीन चार दिन लग गये थे. दुबारा हमने डांस क्लास में एनरोल नहीं कराया. अनुराग ने कहा जितना हमें सीखना था सीख चुके हैं. आगे कुछ नया तो सीखना नहीं है. प्रक्टिस के लिये बेहतर रहेगा कि हम कोई अच्छा सा क्लब ज्वाइन कर लेते हैं. कभी कभार वहाँ जाकर डांस कर लेंगे. समय की भी कोई बाध्यता नहीं होगी. मुझे उनकी बात सही लगी थी और हमने एक क्लब ज्वाइन कर लिया.

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अक्टूबर आधा बीत चुका था. रात में हवाएँ शीतल होने लगी थीं. बरसात की उमस पूरी तरह ख़त्म हो चुकी थी. अनुराग से मिले लगभग साढ़े तीन महीने हो चुके थे. इस बीच हम एक दूसरे को पूरी तरह न सही पर बहुत हद तक समझने लगे थे. एक दूसरे की कही को मानने लगे थे और अनकही को जानने लगे थे. जब वे साथ होते तो मन खिल उठता था. मन में एक अतिरिक्त उर्जा का संचार होने लगता था. कभी कभी मैं उनसे किसी बात के लिये जिद कर बैठती थी. कभी उन्हें छेड़ने लगती थी.

उस दिन हम क्लब से लगभग दस बजे निकले थे. बाहर ठंडी ठंडी हवा चल रही थी. पार्किंग से सटा हुआ एक बड़ा सा लान था. और उसके किनारे किनारे गुलमोहर के पेड़ लगे हुए थे. दो पेड़ों के बीच पत्थर के छोटे छूते चबूतरे से बने थे. हम कार के पास पहुँचे तभी अनुराग ने लान की तरफ इशारा करते हुए कहा, "देखो, कितना खूबसूरत लग रहा है".

"wow !" मेरे मुँह से बरबस निकल गया. सामने लान की हरी हरी घास पर सफेद चाँदनी बिखरी हुई थी. गुलमोहर के पत्तों से छनकर चाँदनी ज़मीन पर एक स्याह-सफ़ेद चादर सी बुन रही थी. गुलमोहर के ढ़ेर सारे फूल नीचे जमीन पर बिखरे हुए थे. सब कुछ इतना मोहक लग रहा था कि मन हुआ बाहें फैलाकर एक पल में सब कुछ अपने अन्दर समेट लूँ. मैंने अनुराग से कहा, "चलो उस गुलमोहर के नीचे चलते हैं..." वे अभी भी खड़े थे. "चलो न...थोड़ी देर के लिये." मैंने उनका हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए कहा.

हम लान में आ गये. मैं अपनी बाहें फैलाकर गोल गोल घूमने लगी, "ओह, कितना सुन्दर है...कितना सुखद है"
अनुराग गुलमोहर के नीचे खड़े चबूतरे पर एक पैर टिकाकर मुझे देख रहे थे.

मैं घूमते हुए एक बार थोड़ा सा लड़खड़ा गई. अनुराग बोले , "संभल कर...कहीं मोटू की तरह तुम भी न गिर पड़ना "
सुनते ही मैं खड़ी हो गई और मेरे होठों से हँसी का फव्वारा निकल पड़ा. आज क्लब में लगभग अधेड़ उम्र का एक जोड़ा था. आदमी काफी मोटा था और औरत दुबली पतली. बहुत ही मद्धिम संगीत पर हम लोग टैंगो डांस कर रहे थे कि अचानक थप्पड़ की एक जोर की आवाज़ आई. सब लोग अचानक रूक गये और सबकी नज़र आवाज़ की दिशा में चली गई. देखते हैं कि वह औरत खड़ी थी, उसका टॉप फट गया था. ब्रा झलक रही थी और मोटा आदमी ज़मीन पर घुटनों के बल था. हुआ यह था कि डांस करते समय वो फिसल गया था और गिरने से बचने के औरत के टॉप को पकड़ लिया था. टॉप फटी और औरत ने एक जोरदार थप्पड़ उसे रसीद दिया. वह गिरकर अपने घुटनों के बल आ गया था. दो लोगों ने दौड़ कर उसे उठाया. औरत में अपने हाथों से फटे हुए टॉप के सिरों को जोड़कर पकड़ लिया और उसे गालियाँ देती हुई बाहर चली गई...पीछे पीछे वो भी भागा. उसके जाते ही हाल में हँसी के ठहाके गूँजने लगे. कुछ देर तक सारे लोग हँसते रहे.

मैं हँसते हँसते पेट पकड़ लिया और अनुराग के पास आकर चबूतरे पर बैठ गई. अनुराग खड़े थे. थोड़ा मेरे ऊपर झुक गये. और बोले, "जानती हो, हँसते हुए तुम बहुत खूबसूरत लगती हो..." . उनकी आँखों में एक अजीब सी अधीरता दिखाई दे रही थी. मेरी हँसी रूक गई. मैं अपलक उन्हें देखने लगी. उनके चेहरे पर कुछ ऐसे भाव थे कि जैसे कोई तूफान उमड़ना चाह रहा हो और उसे वे दबाने की कोशिश कर रहे हों. जैसे कि नील सागर उलट कर बरसने को उद्यत हो और उसे वे रोकने की कोशिश कर रहे हों. मेरी धड़कने थोड़ी तेज हो गई थीं. मेरे आँखों में झाँकते हुए बोले, "सुनो, मैंने एक सपना देखा है"

"क्या???" मेरे होठों से फुसफुसाहट निकल गई.

"मैंने देखा...सफ़ेद हिम खण्डों के जुड़े हुए टुकड़ों की तरह दूर दूर तक फैले हुए बादलों की धरती...उस पर मेरे चाहत के रंग बिरंगे से पुष्पों से बना एक घर...घर के बाहर एक झूला जिसपर तुम बैठी हो...तुम्हारे चेहरे की आभा चारो ओर बिखर रही है सूरज के किरणों की तरह...तुम्हारी खिलखिलाहट होठों से निकलकर धरती पर फूल बनकर उग रही है...मैं तुम्हें झुला रहा हूँ...अनवरत...अनंत काल तक" उनकी आवाज़ भावात्मक तीव्रता से काँपने सी लगी थी. मेरी आँखें बंद हो गई थीं. मैं उन शब्दों में डूबने उतराने लगी थी. उन्होंने आगे कहा,"बोलो वाणी, क्या मेरे सपने को तुम सच करोगी " ओह, उनके शब्दों में कितना कातर आग्रह था. कितना नेह था. मैं चुप थी. बिल्कुल किन्कर्त्व्यविमूध. एकदम सम्मोहित.

"कुछ बोलो वाणी..." वे मेरे पास बैठ गये थे.

"क्या कहूँ...तुम्हारे सपने के सम्मोहन में खो गई हूँ...यकीन नहीं हो रहा है कि यह सुख मेरा है...यकीन नहीं हो पा रहा है कि तुम्हारे सपने में जो है वह मैं ही हूँ...बोलो अनुराग क्या सच में वह मैं ही हूँ जिसके लिये तुमने यह सब कहा."

"हाँ वाणी...तुम्ही हो मेरे सपने का मूर्त रुप..." उनकी बायीं हथेली मेरे गालों पर टिक गई थी. उंगलियाँ मेरे कानो को सहला रही थीं. उनके शब्द फुहार की तरह झर रहे थे, "तुम्ही हो जिसे देखा था मैंने बचपन की परी-कथाओं में...जिसे सुना था गाते हुए अमराइयों में... जिसे पाया था मुस्कराते हुए फूलों में...जिसे छुआ था गंगा की लहरों में..." उनके शब्द अमृत धार की तरह मेरे प्राणों में उतरने लगे थे, "तुम्ही हो जिसे महसूस किया था किशोरावस्था की उन्नीदी आंखों में..." मेरा कण कण सिक्त होने लगा था, "तुम्ही हो जिसे ढूँढता रहा उम्र भर...जिसे सोचता रहा हर पल...सुनो ! तुम मेरी ही आत्मा का एक टुकडा हो" मैं आकंठ भर गई थी. यूँ लग रहा था जैसे मैं हवा में उड़ रही हूँ.

"ओह, इतना नेह !!!" मैंने अपना माथा उनके कंधे पर टिका दिया, "एक दबी सी लालसा सिर उठाने लगी है ...कैसे दबाऊं उसे ?"

"मत दबाओ"
"बहुत चंचल है... मेरा कहा नहीं मानती..."

"मेरे पास आने दो"

"फिर वापस आना नही चाहेगी... बड़ी हठी है! "

"मेरे पास रह जाएगी “

"कहीं टूट कर बिखर गई तो..."

"नहीं बिखरने दूंगा...मैं रोप लूँगा उसे अपनी पलकों में"

"ओह अनुराग !!!...." मैं उनके गले से लिपट गई थी.

"आई लव यू वाणी" मेरे कानो में वे फुसफुसाए.

"आई लव यू टू अनुराग"

कितनी ही देर तक हम वैसे ही बैठे रहे...निःशब्द...बिना कुछ कहे. हमारी धड़कने एक दूसरे को छू रही थीं. हमारे साँसे एक दूसरे को सहला रही थीं. हमारे अहसास एक दूसरे से संवाद कर रहे थे. हम चुप थे.

जैसे तेज बारिश के बाद सूर्य की पीली किरणों की मद्धिम चमक में धुला धुला वातावरण मोहक लगता है. वैसे ही सब कुछ बहुत ही रमणीय लग रहा था. बाहर भी और अन्दर भी.

अनुराग ने मेरे चारों तरफ सपनो की एक दुनिया बना दी थी. मैं हर वक़्त उसी में रहना चाहती थी . लग रहा था कि मैंने अब तक उन्ही की प्रतीक्षा की थी. हर पल उनके प्रेम से आनंदित रहने लगा. हर साँस उनके अहसास से सुवासित रहने लगी. उनकी आँखों में जब स्वयं की तस्वीर देखती तो वह दुनिया का सबसे सुन्दर दृश्य होता था. मैं चाहती थी कि समय वहीं ठहर जाए. शाम के धुंधलके में पार्क के किसी पेड़ के तने से टिककर जब वे मेरा चेहरा अपनी हथेलियों में भर लेते और कहते "आई लव यू", उनका चेहरा भाव की सघनता से भर जाता और भौहें जुड़ सी जाती थीं, मैं उनके शब्दों से अंदर तक भींग जाती थी. जब कभी वे मुझे बाहों में अपने सीने तक उठाते और मेरे चेहरा उनके चेहरे पर झुक जाता था. मुझे लगता था मैं सात आसमानों के ऊपर हूँ. जब कभी मैं उनके कंधे पर सिर टिकाकर बैठी होती और वे मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर मेरे प्रति अपनी भावनाएँ प्रकट करते तो यूँ लगता कि जैसे मैं किसी अनजान नदी में बही चली जा रही हूँ.

मेरी पहले की दुनिया मुझसे छूट रही थी. कहीं भी रहती हर पल अनुराग की प्रतिच्छाया मुझे घेरे रहती.

XXXXXXXX

उस दिन मैं अनुराग का पोर्ट्रेट बना रही थी. तय हुआ था कि वे शनिवार और रविवार दो दिन ३-३ घंटे निकालेंगे. उस दिन रविवार था. हमारा फ्लैट दो बेडरूम का था. एक कमरे में बेड था जिसमे मैं और पूर्वी सोते थे. दूसरे कमरे में मेरी पेंटिंग्स के सामान रखे थे. उसी में अनुराग का पोर्ट्रेट बना रही थी. एक कुर्सी पर वे बैठे थे.

लगभग तीन बज रहा होगा. पूर्वी खाना खाकर बेडरूम में लेटी थी. तभी डोरबेल बजा. मैंने दरवाजा खोला तो सामने गौरव, ऋषभ, विनोद, और प्रीति खड़े थे.

"ओह्हो...आज तो पूरी फ़ौज एक साथ..." सभी अन्दर आ गये. मेरे हाथ में अभी भी ब्रश था.
"पेंटिंग कर रही थी ?" गौरव ने पूछा.
"हाँ, किसी का पोर्ट्रेट बना रही हूँ."
"अरे तुमने प्रोफेसनली पेंटिंग कब शुरू कर दी.." ऋषभ ने मजाक किया.
'किसका पोर्ट्रेट बना रही हो..देखें तो" प्रीति बोली. सारे के सारे पेंटिंग रूम में आ गये. अनुराग से सभी का परिचय कराया. फिर हमलोग वापस ड्राइंग रूम में आकर बैठ गये. पूर्वी भी आ गई थी.
"आज हम लोग तुम्हें पार्टी के लिये इनवाईट करने आए हैं" गौरव ने कहा.
"किस ख़ुशी में पार्टी दे रहे हो ?" मैंने पूछा
"पार्टी मैं नहीं बल्कि अंकित दे रहा है" गौरव ने कहा, "बल्कि यूँ कहो कि हम जबरदस्ती ले रहे हैं"
"प्रमोशन हुए चार दिन हो गये और महाशय बात को दबाकर बैठे थे" विनोद बोले, " वो तो आज अचानक सुमीत मिल गया तो पता चला"
'दैट्स ग्रेट! काफी समय से वो इसका वेट कर रहा था. रुको मैं उसे कोंग्रचुलेट कर दूँ." मैं अंकित को फ़ोन मिलाया.
एक डेढ़ घंटे के बाद सारे वहाँ से चले गये. अनुराग को भी आने के लिये कह गये.

'अच्छी खासी मंडली बना रखी है" उनके जाने के बाद अनुराग ने कहा.
"हाँ, ये है हमारी पूरी मंडली. सारे के सारे बहुत अच्छे हैं" मैंने कहा, " अब आज तो पोर्ट्रेट पूरा हो नहीं पायेगा."
"ठीक है. आज तुम पार्टी एन्जॉय करो...मैं चलता हूँ अब. तुम लोगों को तैयार भी होना पड़ेगा न."
' क्यों...तुम नहीं आ रहे हो पार्टी में ?"
"वाणी, मैं कैसे आ सकता हूँ. जो पार्टी दे रहा है उसे मैं ठीक से जानता भी नहीं और न ही उसने इनवाईट किया है"
"अब इतने भी फ़ॉर्मल न बनो...अंकित से मिल तो चुके हो तुम एक बार और रही बात इनविटेशन की तो सारे ही तुम्हें इनवाईट कर गये हैं और यदि उतना काफी नहीं है तो मैं तुम्हें इनवाईट करती हूँ" मैंने उनकी आँखों में शरारत से झाँकते हुए कहा.
"वेल...अब मैं चलता हूँ"
"सीधे वहीं अंकित के फ्लैट पर आ जाना" मैंने उन्हें अंकित का पता दिया.


पार्टी पूरे जोरों पर थी. सारे के सारे नाच रहे थे. कुछ देर बाद मैंने अचानक प्लयेर बंद कर दिया.

"क्या हुआ ?" सबकी निगाहें मेरी तरफ उठ गयीं.

"अब आज का स्पेशल परफोर्मेंस" और मैंने सालसा कि म्यूजिक चला दी और अनुराग के पास आ गई. उनके साथ डांस करने लगी. हमारा डांस ख़त्म होते ही. गौरव मेरे पास आ गये और बोले " एक बार मेरे साथ" मैं उनके साथ डांस करने लगी. गौरव भी अच्छा नाचते थे.

अनुराग हाल के किनारे पर लगी कुर्सी पर बैठ गये. जब हमारा डांस ख़त्म हुआ तो ऋषभ ने फिर से फ़िल्म म्यूजिक चला दी और सारे डांस करने लगे. अनुराग कुर्सी पर ही बैठे रहे. मैंने अनुराग को उठने के लिये उनका हाथ पकड़ कर खींचते हुए बोली -"आओ न, लेट्स डांस"

'नहीं मन कर रहा है..feeling tired" उनकी आवाज़ सर्द थी. चेहरे पर कुछ उद्विग्नता सी दिखी.

'क्या हुआ... तबियत तो ठीक है न ?" मैं उनके माथे पर हाथ रखती हुई बोली.

"हाँ ठीक है...बस कुछ मन अच्छा नहीं है " वे खड़े हो गये , "मुझे जाना चाहिए अब..."

"यूँ अचानक...अभी तो खाना पीना भी नहीं हुआ है...क्या बात है, "

"कहा न कोई बात नहीं है...बस मन ठीक नहीं है" उनकी आवाज़ थोड़ी सी ऊँची हो गई थी. बाकी लोग भी पास में आ गये.

उन्होंने अंकित से हाथ मिलाते हुए कहा, "I am leaving now...once again congratulations for the promotion and thanks for the party" फिर सबकी ओर हाथ हिलाते हुए बोले , "ok guys, bye...enjoy the party"

"खाना तो खाकर जाते' अंकित ने कहा.

"सॉरी यार ..खाने का मन नहीं हो रहा है...not feeling well" और हाथ हिलाते हुए फ्लैट से बाहर निकल गये. उनके जाने के बाद थोड़ी देर तक खामोशी हो गई. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो गया था. अब लोग एक दूसरे की आँखों में यही तलाश रहे हे कि क्या हुआ?

"I think It happened because of me" गौरव ने खामोशी को तोड़ते हुए कहा, "मुझे लगता है कि उन्हें वाणी के साथ मेरा डांस करना अच्छा नहीं लगा. दूसरा कोई और कारण तो समझ में नहीं आ रहा है"
पार्टी लगभग वहाँ पर रुक गई थी. मुझे बहुत बुरा लग रहा था.

दूसरे दिन ऑफिस में अनुराग का फोन आया. कल की घटना के कारण मन खिन्न था. जो कुछ भी वे कह रहे थे मैं सिर्फ हाँ या ना में जवाब दे रही थी. "शाम को आ रहा हूँ" कह कर उन्होंने फ़ोन रख दिया था.

शाम को हम कैंटीन में बैठे थे. कुछ देर दोनों खामोश रहे. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ.

"नाराज़ हो ?" उन्होंने पूछा. मैं चुप रही...."I am sorry. मुझे पार्टी छोड़कर उस तरह नहीं आना चाहिए था" वे बोल रहे थे और मैं शून्य में देख रही थी.

"you are so possessive? "

"Yah...I am...I am very possessive...मैं ये भी जानता हूँ कि यह गलत है, मुझे ऐसा नहीं होना चाहिए...." कुछ रुक कर बोले, "लेकिन पता नहीं क्या हो गया था तुम्हें गौरव के साथ डांस करते देखकर."

"क्या चाहते हो कि मैं अपने सारे दोस्तों से सम्बन्ध तोड़ लूँ ?"

"नहीं, ऐसा तो मैं बिल्कुल नहीं चाहता..."

"अनुराग, वे सारे मेरे दोस्त हैं जो मेरे साथ इतने सालों से हैं. मेरे हर सुख-दुःख में मेरा साथ दिया है उन्होंने....तुम ऐसा करोगे तो कैसे चलेगा....."

अभी तक मेरा और अनुराग का सम्बन्ध बिल्कुल एकाकी रहा था. हमारे बीच किसी और की उपस्थिति नहीं होती थी. कल पहली बार अन्य लोगों की उपस्थिति में हम मिले थे. उनका पोसेसिव होना मुझे अच्छा नहीं लगा था. उस पर से पार्टी में इस ढंग से व्यवहार की अपेक्षा मैंने नहीं की थी. हालाँकि आज उन्होंने अपने व्यवहार पर अफ़सोस प्रकट किया था. फिर बहुत देर तक मन अशांत रहा.

मैंने स्वयं को समझाया- शायद यह एक क्षणिक बात थी. अनुराग ने मुझे अब तक किसी के भी साथ इस तरह नहीं देखा था. एकदम से ही ऐसी स्थिति उनके सामने आ गई थी इस कारण ही वह एक तात्कालिक प्रतिक्रया रही होगी.

XXXXXXXXXX

फरवरी शुरु हो गया था. ठण्ड काफ़ी कम हो चुकी थी. फिर भी शाम में ६.३० बजे तक धुंधलका छाने लगता था. उस दिन अनुराग आए तो आते ही बोले - आज तुम्हारे लिए एक सरप्राईज़ है.

"क्या... ?" मेरी प्रश्नवाचक नजरें उनके चेहरे की तरफ उठीं.
"उसके लिए तुम्हें मेरे साथ चलना होगा...तुम्हारे पास एक-दो घंटे हैं?
"अधिक टाइम तो नहीं लगेगा...? ८.३० पर मेरी एक मीटिंग है"
"तब तक हम वापस आ जाएँगे."

अनुराग ने अपनी कार एक नए बने हुए हाऊसिंग काम्प्लेक्स के अन्दर रोकी तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और उत्सुकता भी. "किसी से मिलना है ?"
"आओ तो..."

मैंने चारो तरफ निगाह दौडाई. बिल्कुल नयी कालोनी थी. कुछ फ्लैट से रोशनी आ रही थी. लेकिन अधिकतर फ्लैट अभी खाली लग रहे थे. मैं समझ नहीं पा रही थी कि वे मुझे क्या सरप्राईज़ देने वाले हैं. लिफ्ट से एक बिल्डिंग के ११वें फ्लोर पर हम आ गये. अनुराग ने जेब से चाभी निकाल कर एक फ्लैट का दरवाजा खोला. हम दोनों अन्दर आ गये. अनुराग ने बिजली का स्विच ऑन किया. पूरा कमरा खाली था. सिर्फ फर्श और दीवारें.

"This is our house !" अनुराग की आवाज़ खाली कमरे में गूँज उठी. बहुत ख़ुशी थी उनकी आवाज़ में.

"what...!"

"हाँ वाणी, यह हमारा घर है....", उन्होंने मेरा चेहरा अपनी हथेलियों में भरते हुए कहा, " हमारा घर..मेरा और तुम्हारा घर" उनकी आँखों में ख़ुशी तैर रही थी. "मैंने यह घर खरीदा है...अपने लिए...मेरे और तुम्हारे लिए...

'oh my god, I cant believe this" मैं आश्चर्य चकित थी. "तुमने कभी बताया नहीं ?"

“बता देता तो तुम्हारी आँखों में मुझे यह ख़ुशी देखने को कैसे मिलती"

फिर अचानक अनुराग अपने घुटनों पर बैठ गये और मेरा दायाँ हाथ अपने हाथ में लेकर बोले- will you marry me? मेरी आँखें ख़ुशी से छलक उठीं. मैंने लगभग रुँधते गले से कहा "yes, I will"

अनुराग उछलकर खड़े हो गये और मुझे अपने आलिंगन में ले लिया. मेरे गालों को चूमा और कहा- "I love you, Love you so much my darling"

ओह, कितना खूबसूरत था वह पल. किसी सपने की तरह.

फिर अनुराग मुझे घर दिखाने लगे. हम ड्राइंग रूम में थे "इस दीवार पर तुम्हारी पेंटिंग्स लगायेंगे और सामने वाली दीवार पर हमारी फोटो रहेंगी...." फिर हम एक रूम में आ गये. "इस रूम में तुम्हारा कैनवास रहेगा...यहाँ तुम पेंटिंग्स बनाना. देखो इसकी विंडो कितनी बड़ी है. कितना खूबसूरत दिखेगा बाहर". फिर हम दूसरे कमरे में आ गये. "यह कमरा हमारे बच्चों का रहेगा...." अनुराग की बात सुनकर मेरे गाल शर्म से सुर्ख़ हो गये. मैंने उनके सीने में मुँह छिपा लिया.

अनुराग मुझे एक दूसरे कमरे में ले आए जो दोनों कमरों से बड़ा था. "और यह हमारा बेडरूम होगा"
हम खिड़की के पास खड़े हो गये. "यहाँ बस हम और तुम होंगे....हमारा प्यार होगा" अनुराग में पीछे से मुझे अपनी बाहों में भर लिया था. उन्होंने अपनी ठुड्डी मेरे कंधे पर टिका दी थी. बाहर कुहरा झरने लगा था. सड़क के लेम्प पोस्टों की रोशनी धुंधली लग रही थी. गाड़ियों की हेड लाईट्स दीयों की तरह टिमटिमा रही थी. अनुराग की गर्म साँसें मेरे कर्ण पट को छू रही थीं. उन्होंने मेरे गालों को चूमा और मेरे कानो में फुसफुसाए " आई लव यू". मेरी आँखें बंद हो गयीं. ऐसा लगा कि मैं उड़ रही हूँ. अनुराग ने हाथ बढ़ाकर खिड़की खोल दी. कुहरे का एक झोंका सा अन्दर आ गया. एकदम से मेरे चेहरे को ठंडा कर दिया. मैं उनकी तरफ मुड़ी और उनके सीने पर अपना चेहरा रख दिया. अनुराग ने मुझे अपने आलिंगन में ले लिया. उनकी स्नेहमय उंगलियाँ मेरे पीठ पर और बालों में घूमने लगी थी. उनका स्पर्श मेरे प्राणों को छू रहा था. उन्होंने अपनी उंगली मेरी ठुड्डी पर रखकर मेरा चेहरा ऊपर उठाया. उनकी आँखों में प्रेम और लालसा की अग्नि प्रज्वलित थी. उस अग्नि की लपटें मेरे मेरी आँखों को छूने लगीं, मेरे चेहरे को छूने लगी, मेरे अंतह में उतरने लगी. मेरे होठ सूखने लगे. उन्होंने अपने होठ मेरे होठो पर रख दिए. ओह, एक विद्युत् दौड़ गई मेरे शिख से नख़ तक...मेरी धमनियों का रक्त ज्वार सा उफन उठा. मेरी बाहें उनके गले में लिपट गयीं. हमारी तप्त साँसे एक दूसरे में घुलने लगी. आलिंगन की प्रगाढ़ता बढ़ने लगी, स्पर्श सघन होने लगा. हम बढ़ रहे थे बरसाती नदियों की तरह, हम बढ़ रहे थे किसी टूटे बाँध के निर्बाध जल प्रवाह की तरह, हम उफन रहे थे पूनम की रात में समुद्र की लहरों की तरह. उस प्रवाह में हमारे वस्त्र गात से अलग होते गये . हवन कुण्ड से धधकते मेरे अंग प्रत्यंगों पर अनुराग के अधरों का स्पर्श घृत की तरह मेरी लपटों को और बढ़ा रहा था. कमरे की ठंडी हवा उष्ण होने लगी थी. फर्श के पत्थरों की ठंडक विलुप्त हो गई थी. पल पल आतुरता बढ़ रही थी, एक दूसरे में समाहित हो जाने की, एक दूसरे में विलीन हो जाने की. अनुराग का स्पर्श मेरे गात पर प्रेम की गाथा लिखा रहा था. वे घने मेघों की तरह मुझ पर आच्छादित होकर प्रेम रस की वर्षा कर रहे थे. हम एक दूसरे से जुड़ रहे थे. वे मुझमे समाहित हो रहे थे, मुझमे धड़क रहे थे. मैं पल पल टूट रही थी, पल पल जुड़ रही थी, पल पल खिल रही थी. कामना के अश्व पर सवार हम तृप्ति के शिखर पर पहुँच गये. प्रवाह रुक गया. चेतना लौट आई. हमने अपने वस्त्र पहने. अनुराग ने मेरे माथे और गालों को चूमा.

काफी देर हो चुकी थी. हम जल्दी से वहाँ से निकले. अनुराग मुझे ऑफिस में छोड़कर चले गये.

XXXXXXX


उस दिन मेरा जन्म दिन था. अनुराग ऑफिस के काम से कहीं बाहर गये थे. जन्म दिन की बधाई देने के लिए सुबह से मेरे मित्रों के फोन आने लगे थे. हर बार जब फोन की घंटी बजती तो मैं सोचती कि अनुराग का फोन होगा. लेकिन दोपहर तक उनका फोन नहीं आया. मैं जानती थी कि वे बाहर आते थे तो बहुत व्यस्त होते थे. दोपहर के बाद उनका फोन आया. मैं सोच रही थी कि वे मुझे जन्मदिन की बधाई देंगे, लेकिन दस मिनट तक बात करने के बाद उन्होंने फोन रख दिया. जन्म दिन के बारे में कुछ नहीं बोले. मन थोड़ा उदास हो गया. मुझे लगा कि वे भूल गये हैं. फिर मैंने सोचा कि हो सकता है शाम तक उन्हें याद आ जाय. हल पल यही सोचती थी कि कब वे मुझे फोन करें और कहें- हैप्पी बिर्थ डे स्वीटहार्ट. रात में उन्होंने फोन किया और हम देर तक बातें करते रहे. कई बार मन में आया कि उन्हें बता दूँ कि वे भूल गये हैं. लेकिन पहले तो मन में थोड़ा क्षोभ था कि वे कैसे भूल सकते हैं. मेरे जन्म दिन का उनके लिए कोई महत्त्व ही नहीं है. और यदि भूल गये हैं तो फिर मैं क्यों बताऊँ. फिर यह सोचकर भी नहीं बताया कि उनका इस तरह मेरा जन्म दिन भूल जाना हमेशा के लिए मुझे विनोद का एक कारण मिल जाएगा और मैं उन्हें इस बात के लिए छेड़ती रहूँगी.

दूसरे दिन वे वापस आए और शाम में मुझसे मिलने आए. कल बर्थ डे पर पूर्वी ने जो ड्रेस दिया था वह मैंने आज पहना था. बातों के दौरान वे पूछ बैठे " नयी ड्रेस है ?" मैंने बताया कि कल पूर्वी ने जन्म दिन के उपलक्ष्य पर दिया थी.
उनका चेहरा एकदम फक्क हो गया. "ओह, मैं तुम्हारा जन्म दिन कैसे भूल गया" उनके चेहरे पर ग्लानि थी. फिर धीरे से बोले, "आई ऍम सो सोरी"

"इट्स ओके. मुझे पता था कि तुम भूल गये थे" मैने बिल्कुल शान्त स्वर मे कहा.

वे कुछ सोचते हुए बोले- लेकिन ये बताओ तुमने मुझे याद क्यों नहीं दिलाया?

"मैं क्यों याद दिलाती. वैसे भी मेरा जन्मदिन कोई बहुत महत्वपूर्ण नहीं है"

"मेरे लिए महत्वपूर्ण है. तुम मुझे उस सुख से कैसे वंचित कर सकती थी. अगर मैं भूल भी गया था तो तुम मुझे बता सकती थी."

मेरे मन में पहले से ही क्षोभ था और ऊपर से उनका मुझे दोषी ठहराना मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा. मैं तिलमिला उठी,"तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण रहता तो तुम इस तरह से भूल न जाते. गलती तुमने की और दोषी मुझे ठहरा रहे हो.

दिस इस लिमिट.....हमेशा डिफेंड क्यों करने लगते हो...अपनी गलतियों को स्वीकार क्यों नहीं कर पाते." कहते कहते मेरी आँखों मे बरबस ही आँसू छलक आए.

रात मे उन्होने फोन किया. जब मैं किसी बात से दुखी हो जाती थी तब वे बार बार फोन करते और प्यार जताते. जब उन्होने कहा, "मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ", मैँ बोल पडी- ये कैसा तुम्हारा प्यार है अनुराग ओ मुझे बार बार इतना कष्ट देते हो.

कई दिनो तक मैँ अन्मनयस्क रही. पार्टी वाली घटना के बाद भी कुछ एक बार ऐसा हुआ कि हमारे बीच किसी बात को लेकर तकरार हुई थी. धीरे धीरे उनके कुछ दोष उभर कर आए थे. जैसे कि वे बहुत जिद्दी थे और अपनी आलोचना कभी स्वीकार नहीं कर पाते थे. किसी भी बात में अपनी गलती कभी भी नहीं मानते थे. उनका यह स्वभाव मुझे कष्ट देता था. जब वे अपने विचार मुझ पर थोपते तो मेरा आत्मसम्मान बुरी तरह आहत हो जाता और मैं सोचने पर विवश हो जाती कि यह सब किसलिए? लगता कि मेरा व्यक्तित्व कहीं गुम सा होता जा रहा है. यह सोच मेरे लिये बहुत कष्टकारी हो जाती. घन्टों यूँ ही बैठकर सोचती रहती.

अभी कुछ दिन पहले वे घर आए थे. हम बातें कर रहे थे. इस बीच मेरे एक मित्र सुबोध का फोन आ गया. सुबोध इधर कई दिनों से परेशान था. उसका ब्रेक ऑफ हो गया था. बहुत व्यथित था. जब मैंने फोन रखा तो अनुराग के होठों पर एक उपेक्षा पूर्ण मुस्कराहट थी और वे बोल पड़े - "poor stupid fellow "

"dont be judgmental" अनुराग की प्रतिक्रया पर मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और मैं खीझ उठी, " तुम उसके बारे में बिना कुछ जाने ही कैसे इस तरह का कमेन्ट कर सकते हो"

"इसमे जजमेंटल होने जैसा कुछ नहीं है...जितनी तुम्हारी बात फोन पर सुना उतना ही समझने के लिए पर्याप्त था " उन्होंने दृढ़ता से कहा," और इसमे जानने जैसा भी क्या है. एक लडकी, एक लड़के को छोड़ रही है और वह लड़का सहानुभूति के लिए अपने आँसुओं का विज्ञापन करता फिर रहा है... Thats it "

"प्लीज स्टॉप ईट, अगर तुम दूसरों की भावनाओं को समझ नहीं सकते तो कम से कम उनके बारे में इतने रूड कमेन्ट न पास करो. और वो भी मेरे किसी दोस्त के बारे में."

"हुंह, भावनाओं को नहीं समझ सकते, " उन्होंने व्यंगात्मक लहजे में कहा. "i hate cheap emotions"

"प्लीज, मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी है इस बारे में"

"सीधी सी बात है- If you are left by someone, it means you deserve to be left" वे बोले जा रहे थे, 'अरे यार अगर तुम्हारी गलती के कारण कोई तुम्हें छोड़कर जा रहा है तो उसे स्वीकार करो और यदि अपनी गलती से कोई जा रहा है तो वह तुम्हारे साथ रहने के काबिल नहीं था. इसमें लोगों के सामने टेसुयें बहाने से क्या फायदा है"

"कह चुके जो कहना था या कुछ और बाकी है ?"

अनुराग चुप हो गये. हमारे बीच एक ख़ामोशी फैल गई. मन बहुत खिन्न हो गया था उनकी बातें सुनकर. कहीं यह लग रहा था कि उनके मन में मेरे और मेरे आसपास के लोगों के विचारों का कोई सम्मान नहीं था. मैं आहत थी. कुछ देर बाद वे चले गये. मैं वहीँ बैठी सोचती रही.

मैं जानती थी कि वे मेरे पुरुष मित्रों के प्रति सहृदय नहीं थे. उनकी बातों से जब मन आहत होता तो संयत होने में एक-दो दिन लग जाते. वैसे तो वह एक छोटी सी घटना थी किन्तु जो बात खल रही थी वह यह कि दूसरे की बात कभी भी वे न तो सुनना चाहते थे और न ही समझना. किसी भी विषय में उनका अपना एक दृढ मत होता था. जिसे सिद्ध करने में वे दूसरे की भावनाओं को भी भूल जाते थे. यहाँ तक की मेरी भावनाओं कि भी परवाह न करते. एक अजीब सी जिद थी उनके अन्दर.

ऐसा भी नहीं था कि वे संवेदनशील नहीं थे. उनकी संवेदनाओं ने मेरे हृदय को छुआ था. उन्होंने मुझे वे पल दिए थे जिनकी मैंने कल्पना की थी. शुरूआती दिनों में जब हम निकट आ रहे थे तब हर बात पर उनकी प्रतिक्रया वैसी ही होती थी जैसा मैं अपने मन में सोचती थी. किन्तु कुछ विषयों में, या बहुत से विषयों में हमारी सोच बहुत भिन्न होने लगी थी जो एक टकराव की स्थिति उत्पन्न कर देती थी.

अनुराग को मेरी चुप्पी खलती थी. इस बात से मैं अनभिज्ञ न थी. लेकिन जब भी कोई इस तरह की बात होती तो मन में अजीब सी खामोशी घिर आती. एक अजीब सा अन्धकार छा जाता अन्तह में. अनुराग कोशिश करते कि मैं जल्दी से सामान्य हो जाऊँ.

एक दिन उन्होने कहा - चलो कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चलते हैं.
"कहाँ ?"
"शिमला जा सकते हैं."
अगले वीकेंड पर हम शिमला चले गये. वे तीन दिन जीवन के सबसे खूबसूरत दिन थे. अनुराग हर पल मुझे खुश रखने का प्रयास कर रहे थे. उनके सानिध्य, उनके स्पर्श और उनके प्यार से मन पर पड़ी काली छाया पूरी तरह मिट गई थी. जब बर्फ की बारिश में उनके आलिंगन में खड़ी हुई थी, लगभग अपना चेहरा उनके ओवरकोट में छुपाकर और उनकी बाहों ने मुझे ढँक लिया था, गिरते बर्फ की श्वेत आभा मेरे मन को बिल्कुल उजला कर दी थी. कितनी देर तक हम यूँ ही खड़े रहे थे.

पहाड़ी की चोटी पर बने मंदिर के पार्क में खड़े होकर दूर तक फैले पहाड़ियों और उनपर उगे घने पेड़ों के सौन्दर्य को देखते हुए अनुराग बोले- वाणी, जी चाहता है यहीं पर रह जाएँ. वापस लौट कर न जाएँ.
"सच्ची...यहाँ से वापस जाने का मन नहीं करेगा"
"चलो उस पहाड़ी की चोटी पर अपना एक घर बना लेते हैं और वहीं रहते हैं. सिर्फ मैं और तुम. हमारे बीच में कोई न होगा. न काम, न ऑफिस, न ही और कुछ. हम सारी उम्र एक दूसरे में खोये हुए प्यार करते रहेंगे.

"ओह, कितना सुखद होगा, सच में ." मैं उनसे लिपट गई थी.

उन्होंने मेरा चेहरा अपनी हथेलियों में भरते हुए कहा- सुनो, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ... तुम ही मेरा सर्व सुख हो.
"और तुम मेरे सर्वस्व हो" मैंने कहा, " मेरी समस्त कामनाओं का साकार तुम्ही हो". असीम सुख था उन पलों में.

रात में होटल के कमरे में मेरे चेहरे पर झुकते हुए उन्होंने कहा था- जाने क्या बिखरा हुआ है तुम्हारे चेहरे पर, जिसे मैं हर पल अपने होठों से चुनते रहना चाहता हूँ.

"सिर्फ चेहरे पर....?" मैंने मुस्कराते हुए कहा. एक शरारत सी मन में उभर आई थी.

उस दिन फ्लैट पर हमारा मिलन आवेग जनित था. लेकिन आज हम एक दूसरे को जी रहे थे. उस दिन हम पहाड़ी नदी की तरह अति वेग से प्रवाहित हुए थे. आज हम मैदानी नदी की तरह धीरे धीरे बह रहे थे. एक दूसरे में डूबते उतराते, एक अनिर्वचनीय सुखद यात्रा पर अग्रसर थे.

उन तीन दिनों का सुबह, शाम, हर पल वैसा ही था जैसे पलों की मैंने कल्पना की थी. पूरी तरह भर गई थी मैं. वहाँ से वापस लौटकर आने का मन नहीं कर रहा था.

लौटने के कई दिनो बाद तक हमारे बीच सब कुछ बहुत अच्छा चलता रहा. हम प्राय: रोज ही मिलते. अपने भविष्य के सपने बुनते. शनिवार और रविवार को पूरा दिन हम साथ ही बिताते. दस - ग्यारह बजे घर से निकल जाते. कभी किसी चित्र प्रदर्शनी मे चले जाते. कभी प्ले देखते. कभी दिल्ली हाट जाकर कुछ शोपिन्ग करते. कभी प्रगति मैन्दान की सीढ़ियों पर यूँ ही हाथ मे हाथ डालकर देर तक बैठे रहते. शाम को क्लब चले जाते और देर तक डांस करते.


इस बार मेरी डेट्स नही हुई. जब डाक्टर ने बताया कि मैं प्रेग्नेन्ट थी, मेरी आँखें खुशी से चमक उठीं. मातृत्व की अनुभूति से रोम रोम रोमान्चित हो उठा. मैं तुरन्त अनुराग को फोन करके बताना चाहती थी. वे कितने खुश होंगे. अब हमे जल्दी ही शादी करनी पडेगी. मैं अनुराग को फोन करने जा रही थी कि तभी याद आया कि अगले महीने उनका जन्म दिन है. मैने सोचा कि इससे अच्छा जन्म दिन का तोहफा उनके लिये दूसरा कुछ न होगा. मैं रुक गयी.

रात मे सोते समय कितने ही सपनों ने आकर घेर लिया था. हमारा घर, हमारी शादी, हर पल अनुराग का साथ और सबसे अधिक सुखद माँ बनने का यहसास. हमारा प्यार अन्कुरित हो रहा था मेरे गर्भ में. रह रह कर मन पुलकित हो उठता था.

XXXXXXXXX


मैं अनुराग को लेकर अब थोड़ी सतर्क हो गई थी. चाहती थी कि ऐसी स्थितयां न उत्पन्न हों जिनसे हम दोनों को किसी तरह का भी मानसिक कष्ट हो. सामान्य स्थितियों में वे बहुत सदय होते थे. मेरा बहुत ख़याल रखते थे. मुझे बहुत प्यार करते थे. किन्तु नियति को शायद कुछ और ही मंजूर था.

उस दिन हम एक मूवी देखने गये थे. टिकेट के लिए लम्बी कतार थी. हमारे पास पाले से ही टिकेट था. अभी मूवी शरू होने में थोड़ा समय बाकी था. टिकेट खिड़की से थोड़ी दूर हटकर एक चबूतरा सा था. हम उसपर बैठ कर बातें कर रहे थे. तभी देखा कि एक सुन्दर युवती के आग्रह पर एक युवक ने उसे टिकेट लाकर दिया. वह बहुत ही विनम्रता से व्यवहार कर रहा था.

अचनाक वे बोल पड़े -
"beauty deserve it" उनके होठों पर एक अर्थपूर्ण मुस्कान थी.
"क्या कहना चाहते हो ?"
"कुछ नहीं, बस यही कि सुन्दर लड़की को देखते ही लड़कों के मन में कितनी उदारता और विनम्रता आ जाती है" हँसते हुए बोले.
"इसमे गलत क्या है ?"

"गलत कुछ नहीं हैं, बशर्ते इस उदारता और विनम्रता में रुप-लोलुपता न शामिल हो"

"अब ये क्या बात हुई. कोई किसी की मदद कर रहा है उसमे भी तुम्हें बुराई दिख रही है. एक अन्जान लड़की से कोई किस प्राप्ति की अपेक्षा रख सकता है. क्या वह उसकी सहज विनम्रता नहीं हो सकती है"

'बिल्कुल हो सकती है. किन्तु अधिकतर मामले में विनम्रता, लालसा से प्रेरित होती है. सहजता से परे होती हो." फिर कुछ रुक कर बोले, " अच्छा ये बताओ तुम्हारे अधिकतर मित्र पुरुष ही क्यों हैं ?" मैं इस प्रश्न के लिए बिल्कुल भी तैयार न थी और न ही कभी इस बारे में सोचा था.

'क्या मतलब है तुम्हारा" जो बात चल रही थी उसकी दिशा इस तरफ से मेरी तरफ मोड़ देने से मन में थोड़ा रोष उत्पन्न हो गया था.

"मैंने एक सीधा सा प्रश्न पूछा है कि तुम्हारे अधिकतर मित्र पुरुष ही क्यों हैं."

"क्योंकि मैं जहाँ काम करती हूँ वहाँ अधिकतर पुरुष ही हैं, पुरुषों के ही संपर्क में ज्यादा आती हूँ. दूसरे, मैं पुरुष मित्रों के साथ अधिक कम्फर्टेबल महसूस करती हूँ. मेरे जो भी मित्र हैं वे मेरे कार्य क्षेत्र के हैं या फिर मेरे लास्ट एडुकेशन के समय के हैं. लेकिन इसका सम्बन्ध मेरे मित्रों से कैसे है?"

"दूसरी बात अधिक महत्त्वपूर्ण है कि तुम पुरुष मित्रों के साथ अधिक कम्फर्टेबल महसूस करती हो...क्यों?...क्या इसलिए नहीं कि वे तुम्हारे प्रति अधिक सदय रहते हैं. तुम्हारी इच्छा के अनुरूप काम करते हैं."

उनकी बात ने मुझे बुरी तरह से आहत किया था. मैं बिफर उठी "क्या कहना चाहते हो, कि मेरे मित्र रूप-लोलुपता के कारण मेरे प्रति सदय रहते हैं? क्या मेरा व्यक्तित्व इसके लिए कोई कारण नहीं है? और जो लडकियाँ मेरी मित्र हैं वे किस कारण से हैं. उनका क्या स्वार्थ है. तुम्हारे अपने मित्रों का क्या स्वार्थ है तुमसे जो तुमसे जुड़े हैं, " मैं लगातार बोले जा रही थी, "क्या तुम कभी भी पोजिटिव नहीं सोच सकते. हर बात में इतनी नकारात्मकता क्यों ?

"देखो मैंने अपना विचार रखा है. इसमे इतना गुस्सा होने कि कोई बात नहीं है."

" तुम मेरे व्यक्तित्व पर सवालिया निशान लगा रहे हो और कह रहे हो कि गुस्सा होने कि कोई बात नहीं हैं. अपना विचार रखने का क्या मतलब है कि तुम किसी को भी आहत करने के लिए स्वतंत्र हो."

हम मूवी देखे बिना ही लौट आए. उनके शब्द बार बार मेरे अंतह को पीड़ित कर रहे थे. ऐसा लग रहा था कि उनकी नज़र में मैं एक सुन्दर युवती से अधिक कुछ नहीं थी. कई प्रश्न उठ रहे थे. क्या उनका मेरी तरफ आकर्षित होना, मुझसे प्रेम करना, मात्र दैहिक लालसा से प्रेरित है? क्या मेरी बौद्धिकता, मेरा व्यक्तित्व कुछ भी नहीं है उनके लिए?
इस बार मन बहुत ज्यादा दुखी था. किसी से कुछ भी बात करने का मन नहीं कर था. एक उदासीनता ने घेर लिया था. हम पूर्ववत ही मिलते और बात करते लेकिन हमारे बीच एक रिक्तता सी बनी रहती.

अनुराग का जन्म दिन भी आने वाला था. मैं चाहती थी कि उससे पहले सब कुछ सामान्य और पूर्ववत हो जाय.

XXXXXXXXX

शनिवार का दिन था. अनुराग ने फोन किया कि शाम को कहीं घूमने चलते हैं. मैने कहा- आज कहीं नही जा पाऊँगी, मुझे डाक्टर के पास जाना है. वास्तव में मुझे रुटीन चेकअप के लिये जाना था. वे बोले- क्या हुआ, तबियत नही ठीक है? मैं आ जाऊँ?

"तबियत ठीक है, बस पेट मे कुछ प्राब्लम है. सीरिअस नही है. मैं दिखा लूँगी, तुम चिन्ता न करो. वैसे भी घर का काफी काम पड़ा है. आज रहने दो प्लीज. कल चलेंगे."

"ठीक है फिर तुम आराम करो. डाक्टर के यहाँ से लौटकर मुझे फोन करना"

डाक्टर के यहाँ से लौटी तो घर पर अन्कित और विनोद आये थे. अन्कित कहीं से सरोद वादक अमज़द अली के लाइव कन्सर्ट का ४-५ पास लेकर आये थे. चलने के लिए जिद करने लगे. मैने अनुराग को फोन किया तो वे घर पर नही थे. मैं चाहती थी कि वे भी चलते. पूर्वी को एक प्रोजेक्ट पूरा करना था इसलिए वह भी न जा सकी. हम लोग चले गये.

कन्सर्ट से लौटते लौटते साढ़े ग्यारह बज गए थे. अन्कित और विनोद भी मेरे साथ मुझे छोड़ने आये थे. अभी हम आटो से उतरे ही थे कि पास मे खड़ी कार का दरवाजा खुला. अनुराग निकल कर बाहर आए. उन्हे देखकर मैं अवाक रह गयी थी. "अनुराग, तुम इस समय यहाँ?" मैने विस्मय से पूछा. अन्कित और विनोद भी अचम्भित थे.

"हाँ, मैं यहाँ...क्यों आश्चर्य हो रहा है मुझे देखकर ...? " उनके प्रश्न में व्यंग का पुट था. शराब पी रखी थी. मुँह से गन्ध आ रही थी. मैने इस स्थिति की कभी कल्पना नहीं की थी. कभी नहीं सोचा था कि जिसे मैं प्यार करती हूँ वह इस तरह आधी रात को शराब के नशे में मेरे फ्लैट के बाहर बैठकर मेरा इन्तजार करेगा. मेरे दोस्तों और जानने वालों के सामने इस तरह से ड्रामा करेगा.

मैने गुस्से से कहा - "आश्चर्य भी हो रहा है और तुम्हारे हालत पर दुख भी"

"मुझे भी दुख हुआ जब तुमने मुझसे झूठ बोला...बहुत दुख हुआ" वे मेरे काफ़ी पास आ गये थे. उनकी जबान भी थोड़ी लड़खड़ा रही थी.

"अनुराग प्लीज, यहाँ सड़क पर कोई सीन मत क्रिएट करो. चलो ऊपर चलकर बात करते हैं."

"आइए, ऊपर चलकर बातें करते हैं " अन्कित ने उन्हे सहारा देने के लिए उनकी बाहों को पकड़ते हुये कहा.

"डोन्ट टच मी, प्लीज’ अनुराग ने उनका हाथ झटक दिया, "मुझे ऊपर नहीं जाना है." फिर मुझसे बोले, "शर्म आ रही है न तुम्हे मेरी इस हालत पर...तुम्हें तो मेरी हर बात पर शर्म आने लगी है...मेरे हर व्यवहार पर शर्म आने लगी है...मेरी हर सोच पर शर्म आने लगी है...मैं तो तुम्हें देखने आया था. तुम्हारी तबियत खराब थी न...." अनुराग बोले जा रहे थे. मैं चुपचाप खड़ी थी. लग रहा था जैसे मेरी चेतना लुप्त हो गयी थी. मैं जड़ हो गयी थी. समझ मे नहीं आ रहा था कि क्या करूँ. जब अनुराग की कार वहाँ से गयी तब भी मैं खड़ी होकर शून्य मे देख रही थी.

विनोद और अन्कित मुझे ऊपर तक ले आये. " तुम ठीक तो हो न? " विनोद ने पूछा.

"हाँ, मैं ठीक हूँ. तुम लोग अब जाओ, काफ़ी देर हो चुकी है." मैने अपने आँसुओं को रोकते हुये कहा. वे दोनो चले गये. पूर्वी ने बताया कि अनुराग शाम मे आए थे. उसे पता नहीं था कि यहाँ से निकलकर वे घर नहीं गये थे बल्कि शराब पीकर नीचे मेरे आने का इन्तजार कर रहे थे.

मैं रूम मे आकर बिस्तर पर औंधे मुँह लेट गयी. मेरी आँखों से आँसुओं की धार बह निकली. पूर्वी हैरान थी. देर तक मैं रोती रही.

अगले दिन अनुराग ने फोन किया. पूर्वी से बात हुयी. मै फोन पर नहीं आयी. मैं पूर दिन बिस्तर पर ही पड़ी रही. कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था. शाम को वे घर आ गये. मुझसे बात करना चाह रहे थे. मैं बिल्कुल खामोश थी. सिर्फ़ मेरी आँखों के कोरों से आँसू के कुछ कतरे धलक गए.

लगभग एक सप्ताह बीत गया, हमारे बीच कोई बात न हुई. इस बीच अनुराग का एक मेल आया था जिसमे उन्होने उस रात की घटना के लिए माफ़ी माँगी थी. मैने कोई उत्तर नहीं दिया था.

अगले दिन अनुराग का जन्मदिन था. मैं स्वयं को समझा रही थी कि जो भी हुआ उसे भूल जाना चाहिए. विगत दिनो के सुखद पलों को याद करते करते आँखें नम हो गयीं.

दोपहर को जब अपना मेल बाक्स खोला तो अनुराग का मेल था-

वाणी,
हमारे प्रेम की यह परणति होगी ऐसा कभी भी सोचा न था. तुम्हें, मुझसे दुख और अपमान के सिवाय और कुछ भी न हासिल हो सका. शायद मैं तुम्हारा अभीष्ट नहीं हूँ. हमारे बीच भावनात्मक स्तर पर तो कुछ हद तक सामन्जस्य बन भी जाता है किन्तु वैचारिक स्तर पर हम बिल्कुल भिन्न हैं. यही कारण है कि हम प्राय: एक दूसरे से सहमत नहीं हो पाते हैं और हमारे बीच का टकराव हमारे दुखों का कारण बनता है. मैने बहुत कोशिश की स्वयं को तुम्हारे अनुरूप बदलने की किन्तु सफल न हो सका. मुझसे हमेशा कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है जो तुम्हें कष्ट देता है. मैं जानता हूँ तुम मेरे बार बार के आघातों से उकता चुकी हो. इससे पहले कि मैं तुम्हारे लिए और दु:खों का कारण बनूँ, हमारा अलग हो जाना ही श्रेयष्कर होगा.
कंपनी के द्वारा बाम्बे ओफिस ज्वाइन करने का प्रस्ताव, जिसे मैं बहुत दिनों से टाल रहा था, स्वीकार कर लिया है. अगले २-३ दिनों मे मैं वहाँ चला जाऊँगा.
यह सच है कि मैने तुमसे बहुत प्यार किया है और उस प्यार को भूल पाना सम्भव नहीं है. उन सुखद पलों की याद सदैव मेरे मानस मे विद्यमान रहेगी.
अनुराग


मुझे लगा कि मेरी नसों का सारा खून निचुड़ गया है. वेदना की एक लहर शिख से नख तक दौड़ गयी. किन्तु शीघ्र ही वह वेदना क्रोध में परिवर्तित हो गयी. अनुराग ने सच ही लिखा है कि वैचारिक रूप से हम बिल्कुल भिन्न हैं. उनके इस अविवेकपूर्ण फैसले ने मेरे दबे हुए क्रोध को भड़का दिया. जाना चाहते हैं तो चले जाएँ, मैं नहीं रोकूँगी.

अनुराग चले गये. मैंने उन्हे रोकने का कोई प्रयास नहीं किया. उनके साथ ही मेरे अन्दर से बहुत कुछ चला गया था. पीड़ा के आधिक्य ने मुझे जड़ सा कर दिया. सब कुछ ऐसा लग रहा था जैसे कोई भयानक स्वप्न चल रहा हो. मैं अपने आस-पास की गतिविधियों और अपनी अनुभूतियों से भी तटस्थ सी हो गयी.

अगले ८-१० महीने मेरे लिये बहुत कठिन थे. मन के अंतर्द्वंद के अतिरिक्त सामाजिक रण को भी पार करना था . उन कठिन दिनो ने मुझे और अधिक सख्त बना दिया.

जब पहली बार ध्रुव को अपनी गोद मे लिया तो लम्बे समय बाद मन ने कुछ महसूस किया. किसी अनुभूति को मैंने फिर से जिया. धीरे धीरे मैं ध्रुव में खुद को जीने लगी. मैने स्वयं को ध्रुव और नौकरी तक समेट लिया था. कहीं भी आना-जाना बन्द कर दिया था. बिना शादी के माँ बनना, खून के रिश्तों को भी लगभग खत्म कर चुका था. सामाजिक रिश्ते तो सबसे पहले खंडित हुए थे. पूर्वी और मेरे दोस्तों ने मेरा बहुत साथ दिया. ध्रुव के पैदा होने के लगभग एक साल बाद पूर्वी की शादी हो गयी और वो चली गयी थी.

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समय तो अपनी गति से चलता रहता है. अनुराग के गये हुये तीन साल बीत गये. अब ध्रुव लगभग ढ़ाई साल का हो गया है. एलबम में अनुराग की फोटो देखकर उन्हें पहचानने लगा है.

वैसे तो तीन साल बहुत लम्बा समय नहीं होता है किन्तु मेरे लिये पिछले तीन साल तीन युग के बराबर थे. अनुराग के प्रति मन मे क्रोध तो था. लेकिन शायद मेरा प्रेम इतना सबल था कि इतने कष्टों के बाद भी मैं कभीं उनसे घृणा नहीं कर पाई. अचेतन मन मे एक प्रतीक्षा सी बनी रहती थी. लगता था कि कभी वे लौट आएँगे. उनका एक बार लौट कर आना ही मेरे आहत आत्माभिमान का एक मात्र उपचार हो सकता था.

आज तीन साल बाद अचानक अनुराग को देखकर समझ मे नहीं आ रहा था कि मैं किस तरह व्यवहार करूँ. काफी देर तक हम खामोश बैठे रहे. इस बीच शान्ति पानी और चाय ले आयी.

"पूर्वी अब यहाँ नहीं रहती...?" उन्होने पूछा. उनकी निगाह घर की दीवारों और पर्दों पर घूम रही थी. शायद कुछ जानने की कोशिश कर रहे थे. यह जगह अनुराग के लिए नई नहीं थी. बहुत से सुखद पल हमने यहाँ साथ मे बिताए थे. हाँ पूर्वी के जाने के बाद कमरे का विन्यास बदल गया था. बहुत से अनाश्यक फर्नीचर मैने हटा दिया था. ध्रुव को खेलने के लिए अधिक से अधिक खाली जगह बनाना चाहती थी. सिर्फ़ एक सोफ़ा और सेन्ट्रल टेबल पड़ा हुआ था.

"नहीं, उसकी शादी हो गयी है."

कभी हमारी बात खत्म होने का नाम नहीं लेती थी. लेकिन आज हर एक दो वाक्य के बाद एक रिक्तता सी भर जा रही थी. इतने दिनों से खंडित संवाद को जोड़ने के लिए हम उसके सिरे तलाश रहे थे . बार बार उनकी नज़रें मुझसे टकराकर शून्य मे विलीन हो जा रहीं थीं. वे पहले से कुछ दुबले लग रहे थे. चेहरे के भाव अस्थिर थे. एक उद्विग्नता सी दिखाई दे रही थी.

"तुम्हारी पेन्टिंग कैसी चल रही है ?" उन्होने खामोशी को तोड़ा.

"अब मैं पेन्टिंग नहीं करती"

"क्यों...?"

"समय नहीं मिल पाता है...और फिर ऐसा कुछ है भी नहीं जिसे मैं कागज पर सहेज कर रखूँ." मेरे स्वर मे उदासीनता था. जो उनके चेहरे पर फैल गयी.

"बाल छोटे करा ली...?" एक फीकी सी मुस्कराहट के साथ उन्होने कहा, "वैसे यह लुक भी अच्छा लग रहा है"

मैने मुस्करा भर दिया. मेरे घने लम्बे बाल उन्हे बहुत पसन्द थे. जब कभी मेरी गोद में सिर रखकर लेटते तो मेरे जूड़े को खोल देते. मेरे बाल उनके चेहरे पर बिखर जाते. वे उनमें अपनी उँगलियाँ फिराते, उससे खेलते रहते. पहली बार जब पार्क की बेंच पर बैठकर उन्होंने शरारत वश मेरा जूडा खोल दिया था और मेरे बाल खुलकर बिखर गये थे, मेरी आँखों में झाँकते हुए उन्होने कहा था," कितनी सुन्दर लगती हो तुम खुले बालों में. इन्हे कैद न किया करो."

ध्रुव के पैदा होने के बाद मैने बाल कन्धे तक कटवा लिया था. लम्बे बालों को धोने और सहेजने मे बहुत समय लगता था और परेशानी भी होती थी.

तभी अन्दर कमरे मे ध्रुव जाग कर रोने लगा. शान्ति उसे उठाकर मेरे पास ले आई. मैने शान्ति को दूध लाने को कहा. जब भी सोकर उठता है सबसे पहले उसे दूध पीना होता है. शान्ति दूध का बाटल ले आई. मेरी गोद में लेटकर दूध पीने लगा. बीच बीच में अनुराग की ओर देख लेता.

"तुम्हारा...बेटा है...?" अनुराग के स्वर मे कुछ अविश्वास था. आशंका से उनकी आवाज़ लड़खड़ा गई थी.

"हाँ..." मैने एक गहरी साँस लेते हुए कहा. आँखों के सामने वह शाम उभर आयी जब फ्लैट में उन्होंने कहा था- यह कमरा हमारे बच्चों का होगा. कैसी विडम्बना है कि पिता को पुत्र का परिचय देना पड़ रहा है. जी चाहा कि उनके कन्धों को पकड़कर झकझोरते हुए जोर जोर से चीखूँ कि ये क्या हो गया...तुमने ऐसा क्यों किया अनुराग...क्यों ऐसी विषम स्थिति उत्पन्न कर दी. क्यों इस तरह से चले गये थे. लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा. अन्दर के उबाल को थामे रखा.

अनुराग का चेहरा एकदम सफेद हो गया. उनकी आँखों में गहरी निराशा और पीड़ा उतर आयी. उस पीड़ा को मैं पहचानती थी. मैने उसे सहा था. मैने उसे जिया था. खो देने का यहसास उनके मन को कचोट रहा था. छोड़ दिये जाने का दुख बहुत बड़ा होता है. लग रहा था जैसे उनका सब कुछ लुट चुका हो.

थोड़ी देर मे स्वयं को संयत करते हुए पूछे "क्या नाम है?" उनकी आवाज़ में और चेहरे पर एक बेचारगी थी. वे और भी बहुत कुछ कहना चाहते थे लेकिन शब्द उनके होठों तक आकर रुक जा रहे थे. वास्तव में वे पूछना चाहते थे कि मैंने शादी कब की, किससे की. लेकिन शब्द नहीं ढ़ूँढ़ पा रहे थे. शायद इसकी कल्पना नहीं की थी उन्होने. शायद मुझे किसी और के साथ देखना उन्हे अब भी स्वीकार न था.

"ध्रुव..." मैने कहा.

तभी ध्रुव अपने मुँह से दूध का बाटल निकाल कर मेरी गोद में बैठ गया और उनकी तरफ़ देखकर मुस्करा दिया.

"come... आ जाइए मेरे पास " अनुराग ने उसे मुस्कराते देखकर अपना हाथ फैलाते हुये बुलाया.

ध्रुव मेरी गोद से उतरकर उनके पास चला गया. उनके सामने जाकर खड़ा हो गया. अनुराग ने उसकी नन्ही उँगलियाँ अपनी उँगलियों में थाम ली. ध्रुव मेरी ओर देखकर एक बार मुस्कराया और फिर अनुराग की ओर देखकर बोल पड़ा, "पा..पा..." उन्हे पहचान लिया था.

अनुराग की आँखें विस्मय से खुली रह गयी थीं. उन्होने मेरी ओर देखा. मै खामोश थी. ध्रुव को उन्होने गोद मे उठा लिया और उससे पूछा," क्या बोला आपने...?"

"पापा..." ध्रुव ने दुहरा दिया. फिर मेरी ओर देखकर बोला, "मम्मा, पापा..." शायद मेरी सहमति चाहता था.

अनुराग ने ध्रुव को सीने से लगा लिया. मेरी ओर उलाहना भरे नज़रों से देख रहे थे. थोड़ी देर ध्रुव उनकी गोद में रहा फिर उतर कर अपने खिलौने उठा लाया. अनुराग की आँखों में खुशी की एक चमक उभर आई. जैसे डूबते-डूबते बचे हों. ध्रुव खिलौनो से खेलने लगा था.

अनुराग काफी देर तक मुझे चुपचाप देखते रहे. उनका मन शान्त हो चुका था. उनके चेहरे से उद्विग्नता की रेखाएँ मिट चुकी थीं. उनकी आँखों मे मेरे प्रति प्रेम और गर्व उमड़ आया था. भींगे हुए स्वर मे उन्होंने कहा "तुमने मुझे बताया नहीं...?"

"क्या बताती...तुम तो जाने का फैसला कर चुके थे...क्या कहती कि मुझे छोड़कर मत जाओ, मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ… गिड़गिड़ाती तुम्हारे सामने ? " मेरी आवाज़ ऊँची होने लगी थी. इतने दिनों की पीड़ा और क्षोभ शब्द बनकर मेरी जिह्वा से झरने लगा था, "तुमने एक पल मे सब कुछ खत्म करने का निर्णय ले लिया था. एक बार भी मुझसे पूछा कि मैं क्या चाहती थी? तुम्हारे लिए मेरी चाह का कोई अर्थ ही नहीं था." मैं बोले जा रही थी. इतने दिनों से मन मे रुका हुआ बाँध टूट कर बहने को उद्यत था, " बस अपने आप निर्णय कर लिया....एक बार भी मुड़कर नहीं देखा...कभी भी नहीं जानना चाहा कि मैं कैसी हूँ." मेरी आँखों मे आँसू उतर आए., " आज तीन साल बाद लौटकर आये हो और पूछ रहे हो कि मैने तुम्हे बताया क्यों नहीं...इन तीन सालों में मैंने क्या क्या सहा है इसका अन्दाजा है तुम्हे?......" मेरा गला रुँधने लगा था.

अनुराग चुपचाप सुन रहे थे. वे मेरे पास आकर बैठ गये और मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लिया. मुझे अपलक देखते रहे. ध्रुव मुझे जोर जोर से बोलते देखकर सहम गया था. खेलना बन्द करके मेरे पास आ गया. मैने उसे गोद में उठा लिया. आँसुओं को पोछ लिया.

कुछ देर खामोश रही. फिर स्वयं को संयत करते हुए बोली, "तुम तो चले गये थे, अब इतने सालों बाद लौटकर क्यों आये हो ?"

"मैं तुम्हारे पास वापस आना चाहता हूँ" उन्होने काँपती हुई आवाज़ मे कहा. उनकी पलकों के कोरों से आँसू ढ़लक आए थे.

"किसलिए वापस आना चाहते हो....ताकि तुम मुझे फिर से छोड़कर जा सको...?" मेरा स्वर बिल्कुल सपाट था.

उनके चेहरे पर पश्चाताप की लकीरें उभर आईं थी.
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