"तुम हियाँ बैठ के लील रहे हो ! उधर बछरू पगहा तोड़ाकर गाय का सारा दूध गटक गया..."
आँगन का दरवाजा भड़ाक से खुला और भईया की कर्कश आवाज़ पिघले सीसे की तरह मुन्नर के कानों में उतर गयी. हाथ का कौर थाली में ही ठिठक गया. खेत से लौटे थे भईया, फरसा अभी भी हाथ में ही था.
खड़ी दोपहर थी. सूर्यदेव अंगार बरसा रहे थे. आँगन के पूर्वी तरफ थोडी सी छाया, जो बुढ़वा नीम की डालियों के आँगन में झुक जाने के कारण थी, वहीं बैठ कर मुन्नर भोजन कर रहे थे. अचानक भईया की लाउड स्पीकर सी गड़गड़ाती आवाज सुनकर मुँडेर पर जूठन की लालच में बैठे कौवे फरफराकर उड़ गए.
एक तो मई महीने की चिलचिलाती धूप, ऊपर से परशुराम का क्रोध ....चेहरा तवे की तरह लाल हो गया था. ठुड्डी से पसीना ऐसे चू रहा था जैसे कम दबाव वाले जगहों पर नल से पानी टपकता है.
'तुम कौनो काम के नहीं हो.....घोड़ा के तरह हो गए हो लेकिन अकल एक पैसा का भी नहीं है. बस कलेवा डेढ़ सेर चाहिए चारो टाइम.... दस साल तक स्कूल का रास्ता नापे, उहाँ तो कुछ हुआ नहीं....खेती का काम तो छोड़ो घर का भी कुछ काम नहीं होता तुमसे" फरसा को आँगन के एक कोने में रखकर गमछा से पसीना पोछते हुए बिफर पड़े.
शोर सुनकर दालान में चरखा छोड़कर माई आँगन में आ गयीं.
"का हुआ भईया ?" सर पे आँचल ठीक करते हुए पूछीं.
रसोईं में रोटियाँ सेंकती भौजी के हाथ ठिठक गए और वे रोटियाँ छोड़कर जल्दी से छोटी बाल्टी में घड़े से पानी उड़ेलीं और उसमे लोटा डालकर आँगन में ले आयीं. भईया को हाथ मुंह धोने के लिए . डर था कि कहीं देर हो गयी तो गुस्से की गाज उन पर भी न गिर पड़े. उधर छ: महीने का बाबू कुलबुलाकर जाग गया और रोने लगा. भौजी पानी की बाल्टी आँगन में रखकर उसे चुप कराने अन्दर चली गयीं.
"क्या हुआ !...और कौन सी नयी बात है...पता नही कौन सी दुनिया मे रहते हैं...कौनो जिम्मेवारी नही, बस या तो उन लुहेडों के साथ पत्ता खेलेंगे या फिर रामायन बाचेंगे...बीस बरिस के हो गये हैं पता नही भगवान बुद्धि कब देगें." भईया दाँत पीस कर बोले…"अब शाम को बंधी वालों को दूध की जगह अपना कपार देंगे ?"
मुन्नर खाना छोड़कर हाथ धोने लगे थे.
"का बचवा, पगहा ठीक से नही बाँधे थे क्या?" माई के स्वर में प्रश्न का पुट कम और अफसोस ज्यादा थी. उन्नीस साल पूरे होने मे कुछ ही महीने रह गये थे लेकिन मुन्नर माई के लिये हमेशा बच्चे ही रहे.
"हम कह रहे हैं कि जिंदगी भर क्या ये ऐसे ही रहेंगे... एकदम बेअकल... कब तक चलेगा ऐसा ..." भईया बोले जा रहे थे. माई चुप हो गयीं और मुन्नर को कातर नज़रों से देखने लगीं. गलती तो थी मुन्नर की.
"इहाँ दिन रात खटते खटते एडियाँ घिसी जा रही हैं ...किसी को कोई परवाह नही." अब भईया का स्वर थोड़ा नीचा हो चुका था. हाथ मुँह धोते हुए बुदबुदा रहे थे. मुन्नर हाथ धोकर आँगन से बाहर निकल गए.
बाबूजी के जाने बाद जिम्मेदारियों का बोझ और पढ़ाई में मुन्नर की असफलता ने भईया को चिड़चिड़ा बना दिया था. दिन पर दिन खर्च बढ़ता जा रहा है. दो दो बेटियाँ भी पैदा हो गयीं हैं. आमदनी बढ़ने का कोई रास्ता दीख नहीं रहा है. मुन्नर से आस थी कि पढ़ लिख कर कमाने लग जायेंगे तो घर में एक आमदनी का जरिया हो जाएगा. लेकिन मुन्नर के लिए दसवीं की परीक्षा उतनी ही कठिन साबित हुयी जितना कि अभिमन्यु के लिए चक्रव्यूह का अंतिम द्वार.
रामबदन चौबे कर्मकांडी ब्राह्मण थे. पुरखों की थोड़ी खेती बाड़ी थी. गुजारे के लिए पर्याप्त थी. जब पहला पुत्र पैदा हुआ तो उसका नाम "परशुराम" रखे. शायद सोचा होगा कि नाम का कुछ असर तो पुत्र में आएगा ही और जो भयवद्दी के लोग उनसे रार रखते थे वे परशुराम की क्रोधाग्नि में जल कर भस्म हो जायेंगे.
लगता तो है कि नाम का कुछ असर आया है. जब गुस्से में चीखते हैं तो गाँव के दूसरे सिरे तक पता चल जाता है. वैसे माई कहती हैं कि भईया का गुस्सा उनके पिता से ही मिला है.
लाठी की ताकत बढाने के लिए चाहते थे कि चार-पाँच पुत्र हों और हुए भी, किन्तु उनकी किस्मत कि परशुराम के बाद के तीनो बेटे बाल्यावस्था में ही स्वर्ग सिधार गए. केवल एक पुत्री जीवित रह सकी थी. पुत्रों में पाँचवे नंबर पर जयराम उर्फ मुन्नर थे जो बड़े भाई से चौदह-पंद्रह साल छोटे थे. तीन बेटों की मृत्यु के बाद जब फिर बेटा पैदा हुआ तो टोटके के रूप में उसका नाम बुलाने के लिए "मुन्नर" रखा गया. वैसे असली नाम "जयराम" था. मुन्नर बचपन से ही बड़े भाई से उलट बहुत ही शांत और संवेदनशील थे.
मुन्नर द्वार पर आ गए थे. दूर से ही एक नज़र गाय पर डाली. थन सूख चुका था. बछड़ा सारा दूध पी गया था. भईया ने बछड़े को अलग करके खूँटे से बाँध दिया था कसकर गाँठ लगाकर.
"का हो मुन्नर! भाई साहब बहुत तड़क रहे थे, क्या बात हो गयी ? अपने ओसार में लेटे लेटे ही लल्लन ने मजा लेने के लिए पूछा. वैसे लल्लन को पता था कि क्या हुआ है . मुन्नर ने एक उड़ती निगाह लल्लन पर डाली लेकिन कुछ बोले नहीं और नीम के पेड़ के साथ बनी अपनी मड़ई में घुस गए.
मन बहुत ही खिन्न हो चुका था. आजकल भईया का गुस्सा दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा है. पहले तो भौजी ही कचकच करती थीं, अब तो ये भी हर छोटी बड़ी बात पर बिफर उठते हैं. "रोज रोज की खिटपिट से तो अच्छा है कि घर छोड़कर कहीं चला जाऊँ..." मुन्नर के मन में अनेकों विचार उठने लगे- लेकिन कहाँ जाऊँ ? बम्बई जाकर किसी मिल-फैक्ट्री में काम कर लूँगा. लेकिन सुलेमान बता रहा था कि मिलों में जून की दोपहरी से भी अधिक ताप रहता है...... चमड़ी तक झुलस जाती है. उससे अच्छा तो यहीं खेत में काम करुँ. लेकिन यहाँ भईया और भौजी चैन से रहने दें तब न.
चारपाई पर लेटकर उन्होंने तुलसी-रामायण का गुटका हाथ में ले लिया. बाबूजी जब तक जिन्दा थे तब तक भईया उन्हें कभी कुछ नहीं कहते थे. बाबूजी बहुत मानते थे मुन्नर को. दोपहर का खाना खाने से पहले रामायण का पाठ करते थे और मुन्नर को पास बिठाकर उनसे भी साथ में पाठ करवाते थे. उन्हें सुन्दर काण्ड की ढ़ेर सारी चौपाईयाँ कंठस्थ हो चुकी थीं .
बाबूजी की याद आते ही आँखें सजल हो उठीं. . .आँखें बंद करके रामायण के गुटके को सीने पर रख लिया. लेटे लेटे कब नींद ने आ दबोचा पता ही नहीं चला.
जब आँख खुली तो देखा माई पानी ले आई थीं. उनकी आवाज़ सुनकर ही नींद टूटी थी. तीसरा पहर हो चुका था लेकिन सूरज का ताप कम होने का नाम नहीं ले रहा था. हालाँकि किरणें थोडी मद्धिम पड़ने लगी थीं.
"बचवा, पानी पी लो, और देखो गोरून को चारा डालने का समय हो गया है. उठ जाओ. गईया कब से खूँटे पर मथ रही है." माई चारपाई पर मुन्नर के पैरों के पास बैठती हुयी बोलीं.
मुन्नर उठ कर बैठ गए थे. थोडा सा गुड़ मुँह में डालकर पानी पीने लगे.
"तुम तो जानते ही हो आजकल वो भी कितना परेशान रहते हैं. जब देखो तब कोई न कोई आफत आकर खड़ी ही हो जाती है. कर्जा लेकर भैंस खरीदे कि चार पैसे की आमद होगी, पता नहीं किसकी नज़र लग गयी, आमद तो दूर, कर्जा और कपारे चढ़ गया. दो दो बिटिया हैं, घास फूस की तरह रोज बढती ही जा रही हैं. दिन भर खून जराते हैं फिर भी एक पल को चैन नहीं." माईं दोपहर की बात को लेकर सांत्वना दे रही थी.
मुन्नर पानी पी कर मड़ई से बाहर चले गए पशुओं को चारा डालने.
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उस दिन जब मुन्नर दिशा फराकत से लौटे, भईया कुएँ पर नहा रहे थे। जल्दी जाना था. एक रिश्तेदारी में किसी का देहांत हो चुका था. सोच रहे थे जल्दी निकल लूँ. बीस कोस साईकिल चलाकर जाना है. दोपहर होने से पहले पहुँच जाऊँ. आजकल दोपहर में चल पाना मुश्किल हो रहा था.
"हम जा रहे हैं नेवादा…हीरा से बात कर लिए हैं…चले जाना थ्रेसर पे . दुपहरिया से पहले वो हमारा गेहूँ लगा देंगे..." भईया देह पोछते हुए मुन्नर से कह रहे थे.
मुन्नर, भईया के किसी भी बात का जवाब नहीं देते हैं. न हाँ न ना. बस सुन लेते हैं. यह बात भईया भी जानते हैं. ड्योढ़ी पर रखी बाल्टी उठाकर गाय दुहने लगे.
"और देख लेना दँवायी आज जरूर हो जाय. कल से ही बादर उतरा रहे हैं. कौनो भरोसा नहीं है कि दउ कब बरस जायँ...."
"और बंशी से बात कर लेना कि तरी वाला खेत कब पलटना है. वो भी रोज आज कल कर रहा है." भईया धोती का कछाना पीछे खोंसते हुए बोले.
माई ओसार में झाडू लगा रही थीं. वहीँ से बोलीं - " भईया, अब उधर जा ही रहे हो तो थोड़ा रमला के यहाँ भी हो लेना. बहुत दिनों से कोई खोज खबर नहीं मिली. पाहुन का गोड़ टूटा था तब भी नहीं जा पाए थे".
रमला, माई की एक मात्र पुत्री थी जो भईया से दो साल छोटी थी. रास्ते में ही उसका गाँव पड़ता था.
"वहाँ जाने का मतलब कि आज तो नहीं लौट पाउँगा....इतना काम पड़ा है...." फिर कुछ सोचकर बोले " देखूँगा अगर समय से निकल लिया तो चला जाऊँगा...शाम तक लौटने की सोच रहा था... अब भिन्सहरे ही निकलना पड़ेगा वहाँ से " भईया जानते थे कि रमला के यहाँ गए तो रात रुकना ही पड़ेगा.
नाश्ता करके भईया सायकिल उठाकर चल दिए और जाते जाते मुन्नर को हिदायत दे गए -- हम नहीं हैं, जिम्मेवारी से सब काम निबटा लेना, टाइम से बैलों को अलगा देना, अगर दँवायी होने में देर सवेर लग जाए तो गेहूँ को बोरे में भरवा कर वहीँ हीरा के ओसर में रखवा देना. कल सुबह घर ले आयेंगे.
मुन्नर दूध की बाल्टी मुन्नी (भईया कि बड़ी बेटी) को पकडा दिए , जो घर में अपनी माँ के पास ले गयी और खुद नीम के पेड़ से दातुन तोड़कर कुएँ पर बैठ गए.
घंटे भर बाद, दातुन करके, बछड़े को वापस उसके खूँटे से बाँध कर, गाय को छाये में अलग करके , बैलों को चारा डालकर, गोबर उठाकर और साफ सफाई करके जब मुन्नर घर में नाश्ता करने के लिए घुसे तो भौजी आँगन लीप रही थीं. मुन्नर ने ध्यान नहीं दिया और उनका पैर लिपे हुए जगह पर पड़ गया. अभी सूखा नहीं था और पैरों से लगकर उखड गया.
"दीदा फूट गया है तुम्हारा..…...दिखाई नहीं देता.......सब सत्यानास कर दिए....." भौजी की त्योरियाँ चढ़ गयीं. वैसे भी मुन्नर उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते थे और रोज किसी न किसी बात पर एक-आध बार झड़प हो ही जाती थी.
मुन्नर घूरकर भौजी की तरफ देखे पर बोले कुछ नहीं. झगडा नहीं करना चाहते थे. आँगन के एक कोने में पड़ी बसँहटी पर बैठ गए .
"आँख का दिखा रहे हो, जराकर भसम कर दोगे.....आँख जाकर किसी और को दिखाना यहाँ कोई तुम्हारा गुलाम नहीं है....... कौन सी कमाई पर रोआब दिखाते हो ..."
मुन्नर स्वयं को शांत रखते हुए बोले - "थोड़ा सा गोड़ पड़ गया तो कौन सी आफत आ गयी जो इतना बिख उगलने लगीं, दोबारा लीप दो"
"हाँ हाँ.. मैं तो तुम्हारी दर-खरीद लौंडी हूँ न जो दिन भर घिसती रहूँ ......... खरीद के लाये था न मुझे........इहाँ घर में मैं दिन रात पिसती रहूँ और वहाँ खेतों में वे खून जलाते रहें और आप लाट साहब बनकर मौज करते रहो......." भौजी एकदम से भड़क उठीं, "अपने पास तो एक धेला का भी जाँगर नहीं है और चाहते हैं कि बाकी सारे लोग दिन भर खटते रहें"
इस बीच मुन्नी नाश्ता लाकर चारपाई पर ही रख दी थी.
"अब चुप हो जाओ, नहीं तो हम बता रहे हैं कि ठीक न होगा....." मुन्नर को थोड़ा गुस्सा आ गया.
“क्या ठीक नहीं होगा ???......क्या करोगे???.....”अब भौजी आपे से बाहर हो गयीं थीं और जोर जोर से चीख कर बोलने लगी थीं, " मारोगे मुझे, क्या कर लोगे तुम ....तुम क्या समझते हो कि तुम्हारी घुड़की सहेंगे हम .....चारों बेला बैठे बैठे कलेवा मिल जा रहा है तो बहुत चर्बी चढ़ गयी है जो चले हो हमें धमकाने......."
अब मुन्नर से न रहा गया. "साला, हर बखत खिचखिच, जब देखो तब पहड़क, खाना पीना दुसवार कर दिया है..." गुस्से में नास्ते की थाली उठाकर जमीन पर पटक दिए और उठकर खड़े हो गए. " इस घर में एक मिनट भी रहने लायक नहीं है " गुस्से में उठकर बाहर चले गए.
"हाँ तो चले क्यों नहीं जाते कहीं ....हम भी देखें कि कहाँ तुम्हे बैठे बैठे रोटियाँ तोड़ने को मिलती हैं .....और कौन तुम्हारे इस करतब पर बाँदी की तरह हाथ जोड़े खड़ी रहती है ............" भौजी की आवाज ओसार तक मुन्नर का पीछा करती रही.
बाहर आकर कुछ देर कुएँ के चबूतरे पर बैठ गए. धूप धीरे धीरे बढ़ रही थी. हालाँकि, जहाँ वे बैठे थे वहाँ नीम की छाँव आ रही थी. गिलहरियाँ नीम के पेड़ पर ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर दौड़ लगा रही थीं. उपरी डाली पर गौरैया का एक छोटा सा झुंड गायन में तल्लीन था. गिलहरियों और गौरैयों को देखकर उनके मन में कुछ ईर्ष्या उभर आयी और अपने उपर तरस आने लगा- ये इतने तुच्छ जीव कितने मजे से रह रहे हैं और एक मैं ....
सुबह की भईया की बात याद आयी और सोचे की चल कर एक बार देख आता हूँ .पहले बंशी के यहाँ गए तो पता चला कि वह तो सिवान चला गया है . वहाँ से हीरा के थ्रेशर पर चले गए . अभी थ्रेशर चालू करने की तैयारी चल रही थी .
हीरा ने कहा- अभी तो तुम्हारा नंबर आने में दो तीन घंटे लग ही जायेंगे........अभी थोड़े अपने गाँठ पड़े हैं काटने को.... दोपहर तक तुम्हारी कटाई जरूर शुरू कर दूँगा. तब तक अपनी गाँठें उठवा कर थ्रेशर के पास रखवा दो. अभी तो तुम्हारी गाँठें खलिहान के उस कोने में पड़ी है. घंटा दो घंटा तो उन्हें लाने में लग जायेंगे.
गाँव के एक सिरे पर मजदूरों की एक छोटी सी बसावट थी, जो दिहाड़ी पर काम करते थे. मुन्नर सोचे वहाँ से चार मजदूर बुला लाता हूँ . घंटे भर में सारी गाँठें इकट्ठी हो जायेंगी. अभी जाना पड़ेगा नहीं तो एक बार मजदूर काम पर निकल गए तो मिलना मुश्किल होगा.....सोचते हुए बस्ती की ओर चल दिए .
प्रभु काका ताश खेलने के पक्के नशेड़ी हैं. सुबह से शाम तक उनके ओसार में ताश की बाजी जमी रहती है. गाँव भर के निठल्ले लड़के इकठ्ठा होकर ताश खेलते रहते हैं. मुन्नर भी खाली समय में जाया करते हैं. अच्छा खेलते हैं मुन्नर.
जब उनके ओसार के सामने से निकले तो प्रभु काका ने आवाज़ दी. "इतनी जल्दी में कहाँ जा रहे हो मुन्नर ?"
आवाज सुनकर मुन्नर ठिठक गए ...देखा ओसार में प्रभु काका के अलावा तीन लोग और थे ..ताश की बाजी चल रही थी.
"कक्का, मजूर लेने जा रहा हूँ , गेहूँ की गाँठें इकट्ठी करानी है, आज दँवायी है " कहकर मुन्नर आगे बढ़ना चाहे.
"अरे, सुनो तो, एक मिनट यहाँ तो आओ' जो चौकड़ी जमी थी उसमे एक खिलाड़ी कमजोर पड़ रहा था. प्रभु काका मुन्नर को रोकना चाहते थे.
मुन्नर ओसार में आ गए . अभी खड़े ही थे.
"बैठो तो सही, ऐ बिल्लू , थोड़ा और पीछे होओ , मुन्नर को बैठने दो"
'नहीं कक्का मैं मजूर लगाकर आता हूँ, फिर बैठूँगा '
'अरे बैठो, काहे चिंता कर रहे हो, मजूर मैं यहीं बुलवा देता हूँ " काका थोड़ा जोर देकर बोले.
मुन्नर हिचकिचाते हुए बैठ गए. सोचे, अच्छा है अगर यहीं बुलवा देते हैं तो बस्ती तक जाना बच जाएगा. वैसे भी अभी दो तीन घंटे से पहले कटाई का नंबर तो आना नहीं है.
"सुनो, लँगड़ा अभी तम्बाकू लेकर आ रहा है. मैं उसे भेजता हूँ वो बुला लाएगा , बिलकुल भी चिंता न करो. ऐ रामजी, पत्ते बाँटो” काका ने तसल्ली से कहा.
लँगड़ा काका का नौकर है. एक पैर से थोडा सा लँगड़ाकर चलता है. इसलिए उसका नाम ही लँगड़ा पड़ गया है. रामजी पत्ते फेटने लगे.
थोडी देर में लँगड़ा तम्बाकू लेकर आया और काका का चिलम चढ़ा दिया। काका ने उसे हिदायत देकर भेज दिया – “ बस्ती जाकर सल्टू, जगेसर या कोई और भी मिले तो दो आदमी को बुलाकर ले आ. और लौटते हुए बरइया के यहाँ से चार पान भी लगवाते आना."
लँगड़ा चला गया तो मुन्नर को संतुष्टि हो गयी. और वे पत्ते खेलने में तल्लीन हो गए .
डेढ़ दो घंटे बीत गए तब मुन्नर को होश आया कि न तो लँगड़ा ही वापस आया और न ही मजदूर.
"कक्का बड़ी देर हो गयी, लँगड़ा तो वापस आया ही नहीं" मुन्नर के माथे पर चिंता उभर आई.
"हाँ यार, ये कहाँ जाकर मर गया...." काका को भी आश्चर्य हुआ. वे सोचने लगे कि आखिर क्या हो गया. कहाँ अटक गया वह. तभी वहाँ से मुबारक अली गुजरे.
"अरे मुबारक, उधर कहीं लँगड़ा दिखा था क्या " काका ने मुबारक को आवाज लगाकर पूछा.
"हाँ कक्का, बरइया के यहाँ पान तो लगवा रहा था" मुबारक कहते हुए आगे बढ़ गए .
"अभी तक क्या कर रहा था साला ..." काका बुदबुदाए. "तुम चिंता न करो अभी आ रहा होगा" मुन्नर से बोले.
खेल फिर आगे शुरू हुआ लेकिन अब मुन्नर का मन नहीं लग रहा था. सोच रहे थे अगर मजूर नहीं मिले तो बहुत ही मुश्किल हो जायेगी. अगर आज गेहूँ की दँवायी न हुयी तो कल भईया बहुत ही गुस्सा होंगे. अनमने मन से पत्ते फेंकते हुए हुए सोचने लगे. थोडी सी आशा थी कि शायद लँगड़ा मजदूर लेकर आ जाए.
दस पंद्रह मिनट बाद लँगड़ा वापस आया. देखते ही काका आग बबूला हो उठे- "साला, तू कहाँ जाकर मर गया था ????"
"विजय भईया का ट्रक्टर ख़राब हो गया था तो वो रोक लिए थे, मैं क्या करता" लँगड़ा ने अपनी सफाई दी. विजय, काका के बड़े बेटे हैं . काका नरम पड़ गए .
"और मजूरों का क्या हुआ ?"
"मैं जब तक पहुँचा, सब काम पर चले गए थे. घर पे कोई नहीं है. बस बिरजू का परिवार है ...वे सब अपना मड़ई छा रहे हैं.
मुन्नर के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगीं. पत्ते फेक कर खड़े हो गए .
"यह तो बहुत गड़बड़ हो गयी कक्का.... मैं देखता हूँ " मुन्नर चलने को उद्यत हुए .
"अरे घबराओ मत मुन्नर, अभी सब दोपहर में खाना खाने आयेंगे तो उन्हें पकड़ लेंगे" काका ने रोकने की गरज से कहा.
परन्तु मुन्नर रुके नहीं और बस्ती की ओर चल दिए .
जैसा कि लँगड़ा ने बताया था वास्तव में बस्ती में कोई मजदूर घर पर नहीं था. मुन्नर ने किसी तरह से बिरजू को उसके भाई के साथ आने के लिए राजी किया. वह अपनी झोपड़ी बना रहा था. उसने घंटे दो घंटे में आने का आश्वासन दिया. उन्हें थोडी तसल्ली हुयी कि चलो थोड़ी बहुत देर हो जायेगी लेकिन काम तो आज हो जायेगा. लौटते हुए दोपहर घिर आई थी.
रास्ते मे पड़ोस का एक लड़का मिला जिसने बताया कि उनकी माई उन्हें ढ़ूँढ़ रही थीं. मुन्नर सीधे घर आ गए.
सुबह माई जब पड़ोस से लौटी थीं तो मुन्नी ने सारी बात बता दी थी कि "माँ और चच्चा के बीच फिर झगडा हुआ और वे बिना कलेवा किये ही चले गए ". इसलिए माई परेशान हो रही थी.
घर आकर मुन्नर ने स्नान किया . माई खाना लेकर आयीं और वे दालान में ही बैठकर खाना खाये. अन्दर नहीं गए.. माई को बता दिया था कि मजूर ठीक करने गए थे और दोपहर के बाद कटाई शुरू हो जायेगी.
खाना खाकर मुन्नर मड़ई में बिरजू का इंतजार करने लगे। चारपाई पर लेटे लेटे नीद आ गयी. जब नीद खुली तो हड़बड़ाकर उठे. देखे तीसरा पहर घिरने लगा था, तीन चार बज रहे होंगे. बिरजू भी नहीं आया था. भाग कर फिर बस्ती गए . वहाँ से बिरजू और उसके भाई को लेकर खलिहान की तरफ चल दिए.
जब खलिहान के थोड़ी पास पहुंचे तो देखते हैं कि एक सिरे से आग की लपट और धुआँ सा उठ रहा है और भगदड़ मची हुयी है. दौड़कर खलिहान में पहुँचे . गेहूँ की गाँठों में आग लग गयी थी. देखा उनकी गाँठे धू धू कर जल रही थीं. उनके साथ पास में रखी कुछ और लोगों की गाँठें भी. अफरा तफरी मची हुयी थी. पास के कुएँ से लोग बाल्टियों में पानी लाकर आग पर डाल रहे थे.
लोगों के साथ मुन्नर, बिरजू और उसका भाई भी आग बुझाने में जुट गए.
किन्तु जब तक आग बुझाई जा पाती तब तक बहुत कुछ स्वाहा हो चुका था. मुन्नर की गाँठें तो लगभग पूरी तरह जल चुकी थीं. उन्हें काटो तो खून नहीं.
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"हम तो तुम्हे दोपहर में ही बुलाए थे. समय से आ गए होते तो अब तक गेहूँ कट भी गया होता. यह नौबत ही नहीं आती..." हीरा ने अपने ऊपर आने वाली किसी भी किस्म के लांछन को परे धकेलते हुए कहा. फिर सांत्वना देते हुए बोले - "लेकिन जो होना होता है, हो ही जाता है.... होनी को कौन टाल सकता है."
मुन्नर एकटक जली हुयी गाँठों को देख रहे थे. उसके राख की कालिमा उनके अन्दर उतरने लगी थी... जैसे साँझ का अँधेरा सूरज की कमजोर पड़ रही किरणों को निगलते हुए हुए धरती पर उतर आता है और धीरे धीरे सब कुछ अपनी गिरफ्त में ले लेता है. बाहर अभी साँझ घिरने में थोडा वक़्त था पर मुन्नर को सूर्य की पीली किरणे काली दिखने लगी थीं. वहीँ जमीन पर बैठ गए. यूँ लग रहा था कि किसी बिना किनारे वाली स्याह नदी में धीरे धीरे डूब रहे हों.
"मुन्नर, अब घर जाओ, जो होना था वो तो हो चुका. अब यहाँ बैठे रहने से तो कुछ न होगा." साँझ घिरने लगी थी. किसी ने मुन्नर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा. "ओह! एक दाना भी न बच सका" अपना दुःख व्यक्त किया.
मुन्नर ने एक गहरी साँस ली और सर हिलाया जैसे कह रहे हों "जो नहीं होना चाहिए था वो हो गया". फिर उठकर खड़े हो गए.
घर जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. पैर नहीं उठ रहे थे ... लग रहा था जैसे पैरों में एक एक मन वजन का पत्थर बाँध दिया गया हो. किसी तरह स्वयं को घसीटते हुए घर की ओर चल दिए.
गाँव में बात जंगल की आग की तरह फैल गयी कि मुन्नर ताश खेलने में लगे रहे और उनका सारा गेहूँ जल कर राख हो गया.
कुएँ के चबूतरे पर माई बैठी थीं. पास पड़ोस की औरतें उन्हें सांत्वना दे रही थीं. माई को दोहरी चिंता खाए जा रही थी. एक तो फसल के जल जाने का और दूसरे भईया के क्रोध का.
ज्यों ही मुन्नर द्वार पर पहुंचे, भौजी, जो अभी अभी विलाप करके रुकी थीं और सिसकियाँ ले रही थीं, अचानक शेरनी की तरह मुन्नर की ओर झपटीं.
"अब यहाँ क्या लेने आया है रे दुसाध !!! ख़त्म हो गयी तेरी मंडली......" मुन्नर के कुर्ते का कालर पकड़ कर झकझोरते हुए चीख चीख कर बोलने लगीं. औरतों ने आकर मुन्नर का कालर छुडाया.
"अरे, इ पातकी सब कुछ स्वाहा कर दिया रे !!!.... बच्चों के मुँह का कौर छीन लिया हत्यारा........." भौजी बेतहाशा मुन्नर को कोसती हुयी, श्राप देती हुयी चीखे जा रही थीं, "तुझे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी पापी ....जा कहीं जाकर चिरुआ भर पानी में डूब मर ......" औरतें उन्हें शांत कराने का प्रयत्न कर रही थीं.
मुन्नर मड़ई में घुस गए और धम्म से चारपाई पर बैठ गए . न तो उन्हें कुछ सुनाई दे रहा था और न ही कुछ सोच पा रहे थे. जैसे जड़ हो गए थे. काफी देर तक भौजी हिस्टीरिया के रोगी की तरह चीखती रहीं.
शाम को खाना नहीं बना. भौजी और माई दोनों ही बिना खाए ही सो गयीं. मुन्नी ने दिन का बचा खाना स्वयं खाया और छोटी बहन को भी खिला दिया.
रात गहराने लगी थी. पर मुन्नर की आँखों में नीद नहीं थी. चेतना धीरे धीरे लौटने लगी थी- यह क्या हो गया मुझसे? भईया ठीक कहते हैं कि मुझसे कोई भी काम ठीक से नहीं हो पाता है. अब क्या होगा? घर में अनाज का एक दाना भी न आ सका. सब लोग क्या खाएँगे? एक तो पहले से ही तंगी थी ऊपर से भैंस के मरने से कर्ज भी चढ़ गया है और अब तो बिलकुल ही मौत आ गयी. मुन्नी और छुटकी के भूख से बेहाल चेहरे आँखों के सामने घूमने लगे. कितना बड़ा अनर्थ हो गया मुझसे.. कितना बड़ा कलंक लग गया!.. मेरे कारण सभी लोग कितनी बड़ी मुसीबत में आ गए हैं ! कल गाँव में हर आदमी मुझे थू थू करेगा. और भईया ! भईया के सामने कैसे जा सकूँगा. ओह! भौजी ठीक कह रहीं थीं कि मैंने बच्चों के मुँह से कौर छीन लिया है. मैं ही सबकी खुशियों का हत्यारा हूँ .मुझे अब रहने का कोई हक़ नहीं है . मुझे जीने का कोई हक़ नहीं है. मुझे मर जाना चाहिए.
मुन्नर जितना अधिक सोचते गए उतना ही अधिक स्वयं को दोषी पाते गये और उनके मन में आत्महत्या की भावना उतनी गहरी होती गयी. यही एक मात्र उपाय नज़र आ रहा था उन्हें सारी परेशानियों से बच निकलने का.
अंततः मुन्नर इस फैसले पर पहुँचे कि तिनसुकिया मेल, जो भोर में पास वाले स्टेशन से गुजरती है, उसके नीचे लेट जाऊँगा. एक सेकेण्ड में सब कुछ ख़त्म हो जाएगा. न मैं रहूँगा और न ही कोई परेशानी बचेगी. अंतिम फैसला करके मुन्नर उठे. लालटेन जलाए और उसकी रोशनी में अपनी आत्महत्या का नोट लिखकर रामायण के अन्दर इस तरह रख दिए कि कुछ भाग बाहर झाँकता रहे. फिर लालटेन बुझाकर चारपाई पर लेट गए. सोचने लगे कि माई को बहुत तकलीफ होगी , बहुत विलाप करेगी. चलो कुछ दिन बाद सब ठीक हो जाएगा.....सोचते सोचते आँख लग गयी .
कुत्तों के भौकने की आवाज से मुन्नर हड़बड़ाकर उठे, डर था कि कहीं सुबह न हो गयी हो. लेकिन आज की नींद रोज की तरह नहीं थी. क्लेश में लिपटी हुयी थी. दुश्चिंता, भय और दुःख के साए से घिरी हुयी थी. मुश्किल से घंटा भर ही आँख लगी रही होगी. मड़ई के बाहर निकल कर आये तो देखा कि चाँद आसमान में सर के ऊपर था. सोचा बारह-एक तो बज ही रहा होगा. एक घंटा तो स्टेशन पहुँचने में लगेगा. चार कोस दूर है. तिनसुकिया तीन बजे के करीब जाती है शायद.. अब चलना चाहिए..
एक बार रामायण में रखे पत्र को देखा और मड़ई से बाहर निकल आये. चलते चलते एक निगाह घर पर डाले. पश्चिम तरफ का छप्पर पिछले बरसात में चू रहा था . इस बार बारिश से पहले ठीक करना होगा नहीं तो दीवारें गल कर खदरने लगेंगी . सामने कुएँ का चबूतरा सुनसान पड़ा था. उनके कितने ही एकाकी पलों का साथी रहा था. कितनी रातों में देर तक इस पर बैठ कर उन्होंने स्वयं से बातें की थी. नीम के पत्तों से छन रही चाँदनी जो हमेशा ही मुन्नर को बहुत मोहक लगती थी, आज उसमे कोई रमणीयता नहीं देख पा रहे थे. सब कुछ निस्सार सा लग रहा था.
स्टेशन की ओर चल दिए . सारे मोह माया के बन्धनों को तोड़कर ...आत्मघात करने ....इस दुनिया से अंतिम विदा लेने. अब तक के जीवन की सारी बातें मन में चलचित्र की तरह उभरने लगीं थीं . भूत की यादों में डूबते उतराते स्टेशन के पास पहुँच गए .
"सिग्नल से पहले ही लेटना चाहिए मुझे, क्योंकि सिग्नल के बाद गाड़ी धीमी हो जाती है और मुझे देखकर ड्राईवर गाड़ी रोक भी सकता है " सोचते हुए मुन्नर सिग्नल से चार पाँच सौ मीटर पहले आ पहुँचे.
"लगता है गाड़ी आने में अभी समय है. अभी से लेटने का कोई फायदा नहीं है . जब गाड़ी की आवाज़ आएगी तभी लेटूँगा." बैठकर प्रतीक्षा करने लगे.
मुन्नर की आँखों के सामने आने वाली सुबह का दृश्य उभर आया- उनकी क्षत-विक्षत लाश द्वार पर कुएँ के पास पड़ी है. माई दहाड़ मार मार कर रो रही है. गाँव के लोग जमा हो गए हैं. कोई कह रहा है - "अकारथ ही जिंदगी चली गयी.....".
"जीते जी तो किसी को सुख दे न पाए, मरकर उससे भी बड़ा संताप दे गए .... इनकी भी क्या किस्मत है , बुढापे में इतना बड़ा दुःख मिल रहा है......"
एक पल को मुन्नर सिहर उठे. पहली बार मन में प्रश्न उठा-"क्या मैं ठीक कर रहा हूँ ?"
"दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं है. लोग कुछ न कुछ तो कहेंगे ही. माई भी दो-एक दिन रो-धो कर चुप हो जायेगी.." स्वयं ही जवाब दिया मुन्नर ने.
लगभग एक घंटा बीत गया होगा परन्तु गाड़ी नहीं आई.
"क्या बात हुयी, मैं बहुत जल्दी आ गया क्या ! या फिर गाड़ी लेट हो गयी है " मुन्नर सोचने लगे.
"चलकर स्टेशन पर पता करता हूँ ". उठकर स्टेशन की ओर चल दिए .
"आत्महत्या महापाप है. मरने के बाद आत्मा जन्म जन्मान्तर तक भटकती रहती है. मुक्ति पाने के लिए छटपटाती रहती है...” पहले की पढ़ी- सुनी बातें याद आने लगीं थी.
"क्या मैं मरने के बाद भी चैन न पा सकूँगा ??? फिर मरने का क्या फायदा होगा ???" मुन्नर के मन में एक नयी सोच ने जन्म ले लिया और वे इसी उधेड़बुन में स्टेशन पहुँच गए .
स्टेशन पर बिलकुल सन्नाटा था. कोई भी नहीं था वहाँ. स्टेशन मास्टर अन्दर कुर्सी पर बैठा बैठा ऊँघ रहा था. सिग्नल खींचने वाला आदमी, सिग्नल खींची जाने वाली मशीन के टिन के छप्पर से लगे एक बेंच पर अर्धनिद्रा में लेटा हुआ था.
"क्यों भाई तीनसुकिया अभी आई नहीं क्या ?" मुन्नर ने थोडा ऊँची आवाज़ में उसे जगाने के लिए पूछा.
'तीनसुकिया तो यहाँ रूकती नहीं, क्या करोगे जानकार..... साढ़े तीन बजे आएगी....." आँखे बंद किये ही वह बोला और फिर सो गया. रेल विभाग की दस साल से नौकरी करते हुए वह सोते हुए जागने का और जागते हुए सोने का अभ्यस्त हो चुका था.
मुन्नर ने देखा स्टेशन का घड़ियाल अभी दो बजा रहा था. वे प्लेटफोर्म के एक सिरे पर रखे बेंच पर जाकर बैठ गए .
"आत्महत्या करना कितना जायज होगा ! और फिर मरने के बाद तो कुछ भी नहीं बचेगा..आत्मा भटकती रहेगी सो आलग......" - मन मे उठा नया विचार जोर पकड़ने लगा था. 'कहते हैं कि भुतहा बगीचे में रत्तन डोम की आत्मा अभी तक भटकती है, जिसने जमींदार के जुल्म से तंग आकर फाँसी लगा लिया था. सारी रात वह उसी बगीचे में कलपता रहता है . कभी कभी उसके रोने की आवाज भी लोगों को सुनाई भी देती है. तीसिया चमारिन, जिसने सास के जुलुम से तंग आकर एक दिन खुद पर ही मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली थी , रात भर हाथ में लुत्ती लेकर सिवान के इस माथे से उस माथे तक दर्द से बिलबिलाती हुयी चौकड़ी भरती है ......" इन्ही सब सोचों में डेढ़ घंटे बीत गए . इस बीच तीनसुकिया धड़धड़ाती हुयी निकल गयी.
"लेकिन घर भी तो वापस नहीं जा सकता. कौन सा मुँह लेकर जाऊँगा.....नहीं घर तो बिलकुल भी नहीं जाना है ....."
"बनारस चला जाता हूँ. वहीँ गंगा के घाट पर बैठ कर रामायण बाचूँगा....किसी तरह खाने को तो मिल ही जाएगा....".
"लेकिन पास में एक भी पैसा नहीं है, टिकट कैसे लूँगा ?......"
"टिकट की क्या जरुरत है ...इतने भोर में कौन जाँच करने आ रहा है ." अंतिम फैसला लेते लेते भोर होने लगी थी. पाँच बजने वाला था. मुन्नर उठकर स्टेशन की ओर चल दिए गाड़ी का पता करने .
पता चला कि बनारस जाने वाली पैसेंजर गाड़ी साढ़े पाँच बजे आयेगी. अब मुन्नर के लिए प्रतीक्षा का एक एक पल भारी लग रहा था.
अंततः गाड़ी आयी और मुन्नर बिना टिकट ही गाड़ी में सवार हो गए, बनारस जाने के लिए .
लेकिन मुन्नर कि किस्मत.....बनारस पहुँचने से तीन चार स्टेशन पहले ही मजिस्ट्रेट की जाँच हो गयी. मुन्नर को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और पन्द्रह दिनों के लिये जेल में डाल दिया. पुलिस को उन्होंने अपना नाम पता गलत बताया और कहा कि घर में कोई नहीं है. अकेला हूँ . नहीं चाहते थे कि बात गाँव में पहुँचे.
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सवेरे जब मुन्नर द्वार पर नहीं दिखे तो पहले माई ने सोचा कि दिशा-फराकत के लिए गए होंगे. परन्तु जब सूरज ऊपर चढ़ने लगा फिर भी मुन्नर लौट कर नहीं आये तो माई को चिंता होने लगी. वे मैदान की तरफ से आने वाले लोगों से पूछने लगीं कि किसी ने मुन्नर को देखा है. किन्तु सभी ने अनभिज्ञता प्रकट की. अब माई का मन डूबने लगा. मन में शंका- कुशंका का ज्वार उठने लगा - कहीं घर छोड़कर चले तो नहीं गए ? लेकिन जायेंगे कहाँ?? कहीं कुछ कर तो नहीं लिया ?? माई का मुँह कलेजे को आ गया. नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता ...स्वयं को सांत्वना दीं.
दस बजने को आ गए थे लेकिन मुन्नर का कहीं कोई पता न चल सका. अब माई की चिंता ने जोर पकड़ लिया और उन्होंने आस पास सबको बता दिया कि मुन्नर सुबह से ही गायब हैं. मुन्नर की जोर शोर से खोजाई शुरू हो गयी. पल भर में पूरे गाँव में बात फैल गयी- मुन्नर लापता हैं. गाँव का हर कोना ढूँढा जाने लगा, जहाँ भी आत्महत्या की संभावना हो सकती थी. सारे कुएँ तलाशे जाने लगे. बगीचों में ढूँढा जाने लगा कि कहीं फाँसी न लगा लिए हों या धतूरा खा कर कहीं पड़ गए हों.
माई ओसर में बैठी रो रही थीं. पड़ोस की औरतें ढ़ाँढ़स बँधा रही थीं - अरे जायेंगे कहाँ, कहीं किसी यार-दोस्त के यहाँ चले गए होंगे पड़ोस के गाँव में . या फिर बहिनियाँ के यहाँ चले गए होंगे.
कुछ पुरुष भी कुएँ के चबूतरे पर बैठे हुए थे. इस बीच मुन्नी के हाथ रामायण में रखी चिट्ठी लग गयी.
"चच्चा की चिट्टी ..." मुन्नी भागती हुयी मड़ई से बाहर निकली ओर माई के पास ओसर में आ गयी. कुएँ पर बैठे लोग भी ओसर में आ गए .
लल्लन ने चिट्टी मुन्नी के हाथ से लेकर सस्वर पढना शुरू किया -- "
"भईया,
जब तक आपको मेरा पत्र मिलेगा, मैं इस दुनिया से दूर चला जा चुका होऊँगा.
मेरा होना हमेशा आप सबके लिए दुःख का कारण ही रहा है. मुझमे अब जीने की इच्छा ख़त्म हो चुकी है. नहीं चाहता कि मेरे कारण सब लोग और अधिक मुसीबत में आयें. मैं जा रहा हूँ. कल सुबह जाने वाली गाड़ी के साथ ही मेरी जीवन लीला समाप्त हो जायेगी.
माई,
शोक मत करना. समझ लेना तुम्हारा एक ही बेटा था.
जयराम "
माई को चक्कर आ गया वहीँ बेहोश होकर धरती पर लुढ़क गयीं. लोग दौड़कर पानी ले आये और उनके मुँह पर पानी के छींटे मारने लगे और हाथ के पंखे से हवा करने लगे. थोडी देर में होश आया तो छाती छाती पीट पीट कर रोने लगीं. भौजी को भी कोसने लगीं कि उनकी कल की बातों के कारण ही ऐसा हुआ.
तब तक भईया भी आ गए . गाँव में घुसते ही उन्हें खबर मिल गयी थी कि मुन्नर लापता हैं. घर आये तो देखा मातम मचा हुआ है. पत्र पढ़ा और साईकिल उठाकर स्टेशन की ओर भागे, साथ में दो तीन और लोग भी हो लिए अपनी अपनी साईकिलों से.
स्टेशन से एक- दो किलोमीटर आगे पीछे की सारी पटरी छान मारी किन्तु मुन्नर की लाश कहीं न मिली. थक हार कर तीसरे पहर तक सारे लोग घर वापस आ गए. दूसरे दिन भईया जाकर पुलिस स्टेशन में मुन्नर के गुमसुदी की रिपोर्ट लिखा दिए . माई को इतनी सांत्वना देने में सफल रहे कि मुन्नर जिन्दा हैं और कहीं चले गए हैं . कभी न कभी तो लौट ही आयेंगे.
ओसर में चारपाई पर लेटे लेटे भईया शून्य में घूर रहे थे- शायद मेरे गुस्से के डर से ही मुन्नर गया होगा. जैसा भी था , जरुरत पड़ने पर मेरे साथ वही तो खड़ा होता. अपना खून था. पता नहीं कहाँ चला गया.... जिन्दा भी है या नहीं. सारा गेहूँ भी जल गया...खाने पीने का इंतजाम कैसे होगा......" सोचते सोचते भईया कि आँखों में आँसू छलछला गए .
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पंद्रह दिनों बाद जब मुन्नर जेल से छूटे तो उनकी हालत किसी मानसिक रोगी जैसी थी. मन में अनिश्चितता ने घर कर लिया था. कुछ भी निर्णय कर पाने की शक्ति खो चुके थे. कहाँ जाऊँ ? क्या करुँ ? कुछ भी नहीं तय कर पा रहे थे. दल चलकर स्टेशन तक पहुँचे और प्लेटफोर्म की एक बेंच पर बैठ गए. आने जाने वाली गाड़ियों को निर्विकार रूप से देखने लगे.
बदन पर वही पंद्रह दिन पुरानी लुंगी और कुरता था, जो बहुत ही मैला हो चुका था. गाड़ियों के आवागमन की उद्घोषणा और लोगों का शोर उन्हें थोडी देर में ही खलने लगा. तभी प्लेटफोर्म पर आकर एक गाड़ी खड़ी हुयी. उठकर अनायास ही उसमे चढ़ गए. कुछ देर बाद गाड़ी चल दी. उन्हे स्वयं नही पता था कि वे कहँ जा रहे थे. बस गाड़ी मे बैठे चले जा रहे थे.
सूरज डूब रहा था. पश्चिम का आसमान लाल रंग से पुता हुआ लगा रहा था. गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी. मुन्नर खिड़की से बाहर देख रहे थे. कोई छोटा सा स्टेशन था. स्टेशन के दूसरी तरफ कुछ झोपडियाँ बनी हुयी थी. एक सरकारी कुँआ था जहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे. थोडी दूर पर कोई नदी बह रही थी.
गाड़ी बहुत देर तक रुकी रही। मुन्नर उबने से लगे. बिना किसी उद्देश्य के गाडी से उतर गए और पटरी पार कर के कुएँ के चबूतरे पर जा बैठे. वहीँ से टकटकी लगाकर गाड़ी को देखते रहे. वास्तव में वे गाड़ी को नहीं अपितु शून्य में घूर रहे थे. थोडी देर बाद गाड़ी चल दी परन्तु वे वहीँ बैठे रहे. उठकर गाड़ी में सवार होने का कोई उपक्रम नहीं किये.
थोडी ही देर में धुँधलका सा होने लगा. उन्हें कुछ प्यास लग आई. सामने नदी का किनारा दीख रहा था. वे विक्षिप्तों की तरह नदी की ओर चल दिए . नदी पर पहुँच कर हाथ मुँह धोया, पानी पिया. नदी के किनारे से ऊपर आये तो देखा थोडी दूर पर कोई गाँव सा दिख रहा था. जो नदी के किनारे पर ही बसा था. सामने से जो पगडंडी थी वह गाँव की ओर जा रही थी. कुछ सोचकर वे गाँव की ओर चल दिए.
रात घिरने लगी थी. गाँव जीतनी दूर दिख रहा था, उससे अधिक दूरी पर था. चलते चलते थकान होने लगी थी. गाँव से थोड़ा पहले ही कनेर के पेड़ों का एक झुरमुट था. चालीस पचास पेड़ बेतरतीब उगे हुए थे. उनके बीच में एक छोटा सा मंदिर दिखा. वे मंदिर की ओर बढ़ गए. मंदिर में मूर्ति किसकी थी, यह न पहचान सके. परन्तु मंदिर की दशा से यह प्रर्दशित हो रहा था कि उनकी तरह ही मन्दिर भी उपेक्षित है. बाहर, मंदिर से लगा हुआ एक छोटा सा चबूतरा था. वे चबूतरे पर बैठ गए .
गाँव के घरों में लालटेन और दीये की बहुत ही मद्धिम सी रोशनी दिखाई दे रही थी. रात का खाना पकाने का समय था. घरों से चूल्हे का धुआँ उठ कर थोडा ऊपर अँधेरे में विलीन हो जा रहा था. भूख लगने लगी थी. मुन्नर ने इधर उधर निगाह दौडाई. आधे चाँद की हलकी सी रोशनी में देखा पास में ही झरबेरी का एक पेड़ था. उठकर कुछ बेर तोड़ लाये और चबूतरे पर बैठकर खाने लगे. थोडी देर बाद वहीं चबूतरे पर लेट गए.
"घर पर क्या हो रहा होगा! अब तक तो शोक भी ख़त्म हो गया होगा. लोग अपने अपने काम में लग गए होगें. जीवन भर तो कोई किसी के लिए नहीं रो सकता...." न जाने कितनी देर तक सोचते रहे. मन और शरीर दोनों ही बुरी तरह से थके हुये थे. नींद आ गयी.
रात भर बेखबर सोते रहे. नींद खुली तो सवेरा होना वाला था. उठकर नदी के किनारे जाकर नित्य क्रिया कर्म करके जब लौटे तो धीरे धीरे प्रकाश होने लगा था. नहाकर कुरते को नदी के पानी में धो दिया था और पास में ही एक झाड़ पर सूखने को डाल दिया था. वापस आकर नंगे बदन ही चबूतरे पर बैठ गए .
अब आगे क्या करें? हे भगवान तुम्ही कोई ठिकाना दो !!! मंदिर की तरफ मुँह करके आँख बंद कर लिए और सुन्दर काण्ड का सस्वर पाठ करने लगे.
गाँव के बहुत से लोग नित्य क्रिया कर्म के लिए नदी के किनारे इस तरफ आते थे. देखा कि एक व्यक्ति नंगे बदन चबूतरे पर बैठकर रामायण का पाठ कर रहा है. बाल बेतरतीब बिखरे हुए , दाढ़ी बढ़ी हुयी. कुछ लोग कौतुहल वश खड़े हो गए.
जब लगभग दस-पंद्रह मिनट बाद मुन्नर ने आँखे खोली तो देखा कि चार पाँच लोग उनके पास खड़े थे. सबकी आँखों में यही कौतुहल था कि वह कौन है?
"कौन हो महाराज, कहाँ से आये हो ???" बच्चन ने थोडा हिचकिचाते हुए पूछा. मन में भय था कि कहीं कोई सिद्ध महात्मा न हों और गुस्सा न कर बैठें.
मुन्नर ने कुछ कहा नहीं बस बच्चन की तरफ निगाह उठाकर देखा. खुद को इस हालत में पाकर उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें. उन्हें चुप देखकर बच्चन थोडा सकपका गये कि कहीं कोई गुस्ताखी तो नहीं हो गयी.
"तुम भी बौड़म की तरह सवाल करते हो बच्चन, अरे देख नहीं रहे हो बाल बरमचारी हैं, कितना तेज फूट रहा है माथे से ......” ललिता पंडित ने बात को संभालते हुए कहा."कितना ओज है वाणी में ......महराज यहीं रुकना है अभी या आगे की यात्रा है ?” ललिता पंडित मुन्नर के रामायण पाठ से बहुत प्रभावित लग रहे थे.
"कहाँ जाना है यह तो उपरवाला ही तय करेगा." मुन्नर ने एक गहरी साँस छोड़ते हुये बिलकुल शांत स्वर में आध्यात्मिक ढंग से कहा.
"बहुत ऊँची बात कही आपने महाराज ....." ललिता पंडित ने कहा. तभी उन्हें काशी के साधु बाबा की कही बात याद आ गयी.
ललिता पंडित धार्मिक प्रवृत्ति के एक सरल व्यक्ति थे. जजमानी के अलावा तीन चार बीघे जमीन की खेती भी थी. किसी तरह से गुजर-बसर हो जाती थी. जब कोई जुगत बैठता तो तीरथ-बरत भी कर आते थे. साधु-महात्मा से बहुत शीघ्रता से प्रभावित हो जाते थे. अधिक धन पाने के लिए कभी कोई गलत काम तो नहीं करते थे परन्तु दूसरे आम लोगों की तरह ही धनवान होने की इच्छा मन में कभी कभी जोर मारने लगती. कभी सोने से पहले आँखे बंद करके सोचते कि काश! घर में या किसी खेत में से कभी सोने-चाँदी से भरा एक घडा निकल आता. लक्ष्मी माता की पूजा नित्य करते थे.
पिछले सावन में जब संकठा सिंह के साथ काशी गए थे, बाबा विश्वनाथ का दर्शन करने, तब गंगा घाट पर एक साधु मिले थे. पूरे दो रुपये दक्षिणा देकर अपना भविष्य बँचवाया था. बाबा ने कहा था- "बहुत जल्दी ही तुम्हारा भाग्योदय होने वाला है. कोई अनजान व्यक्ति तुम्हारे जीवन में आएगा और तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जायेंगे." सोचे तो थे कि साधु बाबा बताएँगे कि धन की प्राप्ति कैसे होगी परन्तु यह तो...चलो जो भी है भाग्योदय होगा तो अच्छा ही है, भले ही किसी और के कारण हो.
अचानक उनके मन में विचार उठा कि हो न हो यह सन्यासी उनका भाग्य परिवर्तित करने के लिए ही आया है. इस बीच में दूसरे लोग भी कुछ बातें करने लगे. बातों का कुल मिलाकर उद्देश्य, यह जानना था कि मुन्नर कौन हैं , कहाँ से आये हैं और कहाँ जायेंगे. यदि कोई सिद्ध महात्मा हैं तो गाँव के लोगों का दुख कैसे दूर कर सकते हैं. धीरे धीरे और लोग भी जमा होने लगे थे. जवान, बच्चे, बूढे सभी थे. एक छोटी सी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी.
जून का दूसरा पखवाड़ा चल रहा था. दिन में धरती तवे की तरह जल रही थी. आसमान पर बादल कभी दिखाई भी देते तो घूम फिर कर लौट जाते थे. गर्मी से लोग बेहाल तो थे ही उसके अलावा असाढ़ की बुआई के लिए बरसात का ही भरोसा था. लोग आस लगाए बैठे थे कि कब बारिश हो और जुताई शुरू की जाय. बरसात होने में देरी गाँव वालों की चिंता दिन पर दिन बढाये जा रही थी. इन्द्र देव के मनुहार के लिए जगह जगह कढाइयाँ चढ़ाई जा रही थी. तीन चार दिनों से बादल आते थे पर घूम कर लौट जाते थे, बरसते नहीं थे.
गाँव वालों की मुन्नर से वार्तालाप चल ही रही थी कि बादल घिर आये और बरसात शुरू हो गयी. गाँव वाले तितर बितर होने लगे. बरसात ने शीघ्र ही जोर पकड़ लिया था.
"महराज, मंदिर के अन्दर आड़ ले लो.." ललिता पंडित ने बरसात से बचने के लिए भागते हुए कहा. लोग भागकर भुक्खन की झोपडी में शरण ले लिए जो वहां से दस पंद्रह फर्लांग दूर थी.
मुन्नर चबूतरे पर ही बैठे रहे. उन्हें अच्छा लग रहा था भींगना. लग रहा था जैसे वर्षा की शीतल बूँदों से मन का ताप धीरे धीरे मिट रहा हो.
झोपड़ी में खड़े खड़े लोग देख रहे थे कि मुन्नर अभी भी बरसात में बैठे भीग रहे हैं.
"अरे देखो, बाबा तो अन्दर मंदिर में गये ही नहीं, वहीं चबूतरे ही पर बैठे बैठे बरसात का मज़ा ले रहे हैं " किसना ने चुटकी लेने के अंदाज़ में कहा.
"हमेशा चुहुल नहीं किया जाता किसन......" ललिता पंडित ने गंभीर होते हुए कहा 'सिद्ध महातमा हैं, उनके लिए क्या बारिश और क्या ठंडी-गर्मी."
"लेकिन सन्यासी की तरह लग तो नहीं रहे है....मुझे लगता है कि पुलिस का कोई जासूस है. बिसंभर के यहाँ पड़ी डकैती का टोह लेने के लिए भेष बदल कर आया होगा" किसना का साथी झम्मन ने कहा.
"तुम लोग स्कूल, कालेज जा रहे हो लेकिन ज्ञान एक पैसा का भी नहीं है ...." ललिता पंडित के मन में अपनी बात न मानने से थोडा रोष पैदा हो गया था, "..... इस उमर में कोई पुलिस में भरती होता है क्या .... हप्ता भर से कढैया चढ़ रहा था एक बूँद भी पानी बरसा ?" सबको संबोधित करते हुए बोले... ' आज देखो उनके चरण पड़ते ही क्या हरहराकर पानी बरसने लगा." लोग चुप हो गये. किसी ने कुछ नहीं कहा. सबको उनकी बात में कुछ सत्यता दिखने लगी थी.
'बस यहाँ कुछ दिन रुक जाएँ तो गाँव का उद्धार हो जाएगा " इस बार थोड़ा धीमी आवाज में बोले जैसे स्वयं से ही कह रहे हों, “लेकिन रमता जोगी , बहता पानी , देखो कब तक रुकते हैं….. गाँव की किस्मत ". अब उन्हें विश्वास होने लगा था कि यह वही व्यक्ति है जो उनका भाग्य परिवर्तन करेगा.
एक- डेढ़ घंटे लगातार बरसने के बाद बादल छाँट गये लोग झोपड़ी से निकल कर इधर उधर अपने घर और काम पर जाने लगे.
गाँव में मुन्नर को लेकर तरह तरह की बातें फैल गयीं. कोई कहता - धनेसरी माई के मंदिर पर एक सिद्ध महात्मा पधारे हैं. बहुत ही ग्यानी, सारे वेद, पुराण, रामायण, गीता सब कंठस्थ है. देखने में तो अभी लड़के लगते हैं लेकिन इतने प्रतापी हैं कि उनके गाँव में पैर रखते ही बरसात शुरू हो गयी. कुछ लोग आशंका भी व्यक्त करते- पता नहीं कहाँ से आया है , कौन है? कुछ नवयुवक उनके जासूस या बहुरूपिया होने की शंका भी जाहिर कर रहे थे. जितने मुँह उतनी बातें हो रही थीं.
जो कुछ भी हुआ उससे मुन्नर को इतना फायदा तो हुआ कि लगभग दो दिन से जल रही क्षुधा के लिए भरपेट भोजन मिल गया था. पिछले पंद्रह सोलह दिनों से लगातार मानसिक यंत्रणा सहने के बाद लोगों की आँखों में अपने लिए सम्मान देखना सुखद लगा, भ्रमवश ही सही. अब वे इस भ्रम को बनाए रखना चाहते थे. कनेर के पीले फूल मोहक लग रहे थे - बहुत दिनों बाद उन्हें प्रकृति की किसी वस्तु में आकर्षण दिखा. मन की भावनाएँ वापस लौटती हुयी प्रतीत होने लगी थी.
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अभी शाम होने में लगभग घंटा-डेढ़ घंटा बाकी था. परन्तु दोपहर की बरसात ने मौसम सुहाना कर दिया था. हवा में थोड़ी शीतलता आ गयी थी.
बब्बन पांडे, सिराहू सिंह और राम आधार पांडे के अलावा गाँव के दो-एक और माननीय लोग संकठा सिंह के द्वार पर नीम के पेड़ के नीचे चारपाई पर बैठकर भूँजे का आनंद ले रहे थे. सरपत से बनी छोटी छोटी दो- तीन टोकरियों में भुना हुआ चना और लाई रखा हुआ था. साथ में लहसुन, मिर्च और नमक की चटनी और गुड़.
संकठा सिंह गाँव के सबसे सम्पन्न लोगों में से एक थे और बहुत ही जिंदादिल आदमी थे. खाना, खिलाना, गपशप करना उनका शौक था. शाम के समय प्रायः गाँव के मित्र लोग दरवाजे पर आ जाते थे. ताजे भुने हुए दाने की सोंधी महक और स्वाद के साथ निंदा रस की भी नदियाँ बहतीं. गाँव की हर घटना पर इन लोगों की राय अपना एक महत्त्व रखती है और हर बात की यहाँ चर्चा होती है.
बात उड़ते उड़ते यहाँ तक भी आ पहुँची थी.
"लगता है बाऊ साहब, आजकल गाँव के नक्षत्र ठीक नहीं चल रहे हैं ....." बब्बन पांडे अपने स्वर में जीतनी चिंता और गंभीरता ला सकते थे, लाकर एक लम्बी साँस छोड़ते हुए बोले. सभी की प्रश्नवाचक दृष्टि उन पर गड़ गयी. आगे बोलना शुरू किये, "ललिता पंडित उसके सिद्ध महात्मा होने का प्रचार कर रहे हैं . हम कहते हैं कि अगर वह संत है तो अब से पहले कहाँ था, कहाँ से आया है और इस गाँव में क्यों आया है? सभी को उनके प्रश्न जायज लगे.
"हमें तो लगता है कि वह या तो पुलिस का जासूस होगा या किसी गिरोह से ताल्लुक रखता होगा. गाँव की टोह लेने आया होगा." आम आधार पांडे न अपना मत व्यक्त किया.
"पुलिस का जासूस इस गाँव में क्या लेने आयेगा?" सिराहू सिंह ने असहमति जताते हुए रूखे स्वर में कहा.
"काहें , हरवंश के यहाँ डकैती नहीं पड़ी थी ?'
'तुम भी गजब बात करते हो, डकैती पड़े हुए छः महीने बीत गए. तीन डकैतों को पुलिस ने गिरफ्तार भी कर लिया है. अब जासूस क्या लेने आएगा." सिराहू सिंह ने राम आधार पांडे की बात को सिरे से नकार दिया.
"तब किसी गिरोह से ही होगा" दूसरी संभावना उठ खड़ी हुयी.
'गिरोह -उरोह से कुछ नहीं, तुमने देखा है उसे ??? अठारह उन्नीस साल का भोला भाला सा लड़का है. कौन सा गिरोह बनाएगा.' सिराहू सिंह खेत पर जाते समय एक उड़ती निगाह मुन्नर पर डाल आये थे. "मेरे विचार से वह या तो घर से भागा हुआ है या कोई यतीम होगा जो यहाँ -वहाँ भटक रहा है."
"अब राम जाने कौन है, पर जो भी है गाँव के लिए अनजान है. उससे खबरदार रहना चाहिए." संकठा सिंह ने बात को ख़त्म सा करते हुए कहा.
तभी उधर से गुजरते हुए ललिता पंडित पर नजर पड़ी. लम्बे लम्बे डग भरते हुए जल्दी में चले जा रहे थे.
"अरे पंडित जी, इधर तो आओ...यह हम क्या सुन रहे हैं कि कोई महात्मा पधारे हैं ........." संकठा सिंह ने ललिता पंडित को आवाज दी.
'अब क्या पता की महात्मा है या बहुरुपिया है कोई." बब्बन पांडे ने धीमे स्वर में कहा. तब तक ललिता पंडित चारपाई के पास पहुँच चुके थे. बब्बन पांडे ने थोड़ा खिसक कर ललिता पंडित के बैठने के लिए जगह दे दिया.
'नहीं पंडित जी, बहुरुपिया तो नहीं है......" ललिता पंडित ने एक एक शब्द पर बल देते हुए कहा, ' हैं तो कोई सिद्ध महात्मा ही "
'सुने हैं कि बहुत ही कम उम्र के हैं और रात से ही वहीँ धनेसरी माई के मंदिर में पड़े हुए थे ??? " राम आधार पांडे ने प्रश्न किया.
'अब साधु महात्मा की उम्र क्या होती है. लगता है बाल बरमचारी होंगे.....कब आये ये तो पता नहीं....सुबह जब नदी से लौट रहा था तो लगा कि कहीं कोई रामायण बाँच रहा है. मैंने सोचा कि यहाँ नदी के किनारे रामायण कौन बाँचेगा. इधर उधर नज़र दौडाई तो क्या देखता हूँ कि मंदिर पर कोई बैठा है . पास गया तो महराज आँखे बंद किये हुए , पद्मासन लगाए , नंगे बदन बैठे हुए थे.. साक्षात् देवता के तरह लग रहे थे ...रामायण की चौपाईयाँ मुहजबानी गाये जा रहे हैं ... इतनी मिठास आवाज़ में कि जैसे सरसती का वास हो." कहते कहते ललिता पांडे की आँखे चमकने लगी और वे भाव विभोर होने लगे. “और देखो हम उनसे अभी बात ही कर रहे थे और कह ही रहे थे कि महाराज सूखे से हम तंग हो गये हैं अचानक बादल घिरा और बरसने लगा."
वहाँ बैठे लोग ललिता पांडे की बात पर पूर्णतः विश्वास तो नहीं कर पाये पर पूरी तरह विरोध भी नहीं किये. पानी तो बरसा था, जो एक सत्य था और आज ही बरसा था जब मुन्नर गाँव में आये थे.
'तो आपने उनसे बात की, क्या लगा कि यहाँ रुकेंगे या चले जायेंगे???" संकठा सिंह ने पूछा.
'वे तो सुबह ही जा रहे थे, पर मैंने उनसे चिरोरी की कि महराज कुछ दिन रुक जाईये, गाँव का भला हो जाएगा, लेकिन उन्होंने कुछ आश्वासन नहीं दिया...अच्छा मैं अभी चलता हूँ , गोसाईं के पूरा तक जाना है." वे उठ खड़े हुए , "देखो रुकते हैं कि चले जाते हैं." कहते हुए ललिता पंडित चले गए .
संकठा सिंह को साधु, महात्मा लोगों में अधिक रूचि न थी और न ही ललिता पंडित की बातों पर विश्वास ही हो रहा था और वो ये भी जानते थे कि ललिता पंडित साधुओं से बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं. उनके जाने के बाद उस विषय में थोडी बहुत और बात हुयी. उसके बाद चकबंदी की चर्चा शुरू हो गयी.
अंतिम बात जो उस सम्बन्ध में हुयी, उसका सार यह था कि जो भी हो थोड़ा होशियार रहना चाहिए. किसी पर आँख बंद करके विश्वास नहीं कर लेना चाहिए. वैसे तो अठारह उन्नीस साल का लड़का गाँव का क्या बिगाड़ सकता है.
शाम के समय ललिता पंडित मुन्नर के लिए फिर खाना ले आये. मुन्नर दोपहर में खाना कुछ ज्यादा ही खा लिए थे. पेट भरा भरा सा लग रहा था. मना कर दिया खाने से. बस खाने के साथ जो गाय का एक गिलास दूध था उसे पी लिया. ललिता पंडित ने सोचा कि बाबा एक ही वक़्त खाते हैं.
"रात में विश्राम करने के लिए हमारे दरवाजे पर ही चले चलिए महराज! " ललिता पंडित ने आग्रह किया.
'नहीं मैं यहीं सो रहूँगा, इसी चबूतरे पर." मुन्नर ने कहा. अचानक जो एक नयी परिस्थिति बन आई थी, उसमे मुन्नर सोच समझ कर कदम उठाना चाहते थे. लोगों के मन में उनके प्रति सन्यासी होने का जो भ्रम बन रहा था, उसे खत्म नहीं करना चाहते थे. कम से कम सम्मान तो मिल रहा था. और इतना बड़ा गाँव है एक दो वक़्त का खाना तो मिल ही जाएगा.
"लेकिन बाबा, यहाँ तो खतरा है, रात में कोई जीव-जंतु....." उनका संकेत साँप, बिच्छुओं की ओर था.
"जो ईश्वर की इच्छा होगी, वही होगा." उन्होंने दार्शनिक अंदाज में कहा, " होइहें वही जो राम रचि राखा...."
ललिता पंडित लाजवाब हो गए और घर चले आये.
रास्ते में सोचते रहे- वैसे तो महात्मा हैं, उन्हें साँप-बिच्छू क्या छुएगा, दूसरे, देवि के चबूतरे परकिसी जीव की चढ़ने की हिम्मत न होगी. फिर उन्हें ख्याल आया कि आज तो बरसात के कारण मौसम थोडा ठीक हो गया था. लेकिन कल से दिन में बाबा कहाँ रहेंगे. मंदिर के चबूतरे पर तो पूरी धूप आती है. मंदिर के अन्दर तो इतनी जगह नहीं है कि कोई पैर फैला सके. कनेरों के नीचे छाया रहती है पर जमीन पर कैसे लेटेंगे. कोई चारपाई डाल दूँ? नहीं महात्मा लोग चारपाई पर नहीं सोते. तख्त चाहिए. पर उसे बनवाने के लिए लकडी कहाँ है? फिर ख्याल आया कि कनेरों से ज्यादा छाया पारिजात के नीचे रहती है. बहुत पुराना पेड़ है. बरगद की तरह शाखाएँ फैली हुयी हैं. "क्यों न पारिजात के पेड़ के तने से सटाकर एक मिट्टी का चबूतरा बना दिया जाय'' मन में बात कौंधी और जँची भी.
दूसरे दिन सुबह अपने छोटे बेटे और निराहू राजभर के साथ फावड़ा लेकर आये. एक कोने से मिट्टी खोद खोद कर चबूतरा बनाने लगे. शाम होते होते चबूतरा बन कर तैयार हो गया. उस पर गोबर से लिपाई कर दी गयी. जजमानी में मिली एक दरी भी डाल दिए उस पर. इसके अलावा एक छोटी सी बाल्टी और लोटा भी रख दिए.
मुन्नर, सब कुछ अपने पुण्य और पापों का फल समझ कर स्वीकार कर रहे थे। दिन में पारिजात के नीचे लेटे लेटे लू के थपेडों से जब चेहरा और शरीर झुलस सा उठता तो सोचते, "यही प्रायश्चित है मेरा."
ऐसा नहीं था कि गाँव में केवल ललिता पंडित अकेले ही थे जो मुन्नर में एक सिद्ध महात्मा देखते थे. उनके अलावा कई दूसरे लोग भी थे जो मुन्नर का एक महात्मा की तरह सम्मान करते थे.
उस दिन बेचन महतो जब अपने दस साल के लड़के को, जो महीने भर से बीमार चल रहा था और जटाशंकर वैद्य से लेकर शिवमूरत डाक्टर तक की दवाईयों से बुखार न उतर सका , तहसील के बड़े अस्पताल में दिखाकर लौट रहे थे तो सोचा कि बाबा का भी आशीर्वाद दिला दें बच्चे को. उस दिन शाम को जब बुखार उतरा फिर उसके बाद दोबारा न आया. तीन-चार दिन में ही लड़का घूमने फिरने लगा. बेचन महतो लोगों से कहते फिरते- 'डाक्टर, वैद्य तो दवाईयाँ देते ही हैं, लेकिन फायदा करेगी या नहीं यह तो भगवान की मर्जी होती है. संत, महात्मा के आशीर्वाद में बड़ा दम होता है."
दिन रात गृहस्थी की चक्की में पिसते हुए, समाज और संस्कारों के बोझ को काँधे पर उठाये, ताकतवर लोगों की वरिष्ठता के दंभ की ताप को सहते हुए, सुबह से शाम तक रोटी की जुगाड़ में जी तोड़ मेहनत करने वालों के लिए अंतिम आसरा तो ईश्वर ही होता है. परन्तु वह सदा ही अदृश्य, मूक और बधिर रहता है. ऐसे में यदि कोई जीता जागता, मनुष्य रूप में, सहारा दीखाई देता है तो मन का आकृष्ट होना नितांत स्वाभाविक होता है.
शाम के समय दो चार लोग कनेरों के झुरमुट की तरफ आ ही जाते थे. चर्चा के लिए कोई रामायण का प्रसंग उठ जाता या सामान्य आध्यात्मिक बातें. प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक जीवन दर्शन होता है, जिसे वह बड़ी गंभीरता से दूसरे को सुनाना चाहता है. दिन भर की एकाकी के बाद मुन्नर का भी मन बहल जाता. जी में आता तो कुछ चौपाईयाँ गा देते. स्वर अच्छा था उनका. लोगों को उन्हें सुनना भाता था.
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लगभग एक सप्ताह गुजर चुका था उन्हें इस गाँव में आये. एक दिन संकठा सिंह पड़ोस के गाँव से किसी पंचायत का फैसला करके अपनी साईकिल पर लौट रहे थे. दोपहर के बारह बज रहे होगें. लू और बवंडर उठ रहा था. अपने चेहरे को पूरी तरह गमझे से ढँके हुए थे, फिर भी चेहरे पर ताप लग रही था. आँखे तक जलने लगीं थी. देखा कि मुन्नर पारिजात के नीचे चबूतरे पर लेटे हुए थे. संकठा सिंह थोडी दूर, पगडण्डी से गुजर रहे थे फिर भी इतना वे देख पा रहे थे कि मुन्नर चेहरे को दोनों बाहों के बीच में घुसाकर लू के थपेडों से बचने का अथक प्रयत्न कर रहे थे. घुटने और कुहनियाँ लगभग सट रहीं थी और शरीर दोहरा हो रहा था.
देखकर उनका मन द्रवित हो उठा. "पता नहीं कहाँ से आया है. इस लू की चपेट में आ गया तो राम नाम सत्य हो जाएगा."
गाँव में घुसे तो राम आधार पांडे के ओसार में ललिता पंडित भी मिल गए. कुछ और लोग भी बैठे थे. वे अपनी साईकिल रोक लिए.
"आईये, बाऊ साहब, किसके पक्ष में फैसला हुआ पंचायत का? " राम आधार पांडे ने उनका स्वागत करते हुए पूछा. तब तक वे ओसर में आ गए और एक चारपाई पर बैठ गए.
"पंचायत की बात तो अभी बताता हूँ, पहिले जो देखकर आ रहा हूँ वह सुनो." फिर ललिता पंडित को संबोधित करके बोले, "पंडित जी, वो तुम्हारे महात्मा को देखा. वहीं पारिजात के नीचे लू में पड़पड़ा रहे हैं ...अरे यार कहीं कुछ हो-हवा गया तो एक नीरीह आदमी के मरने का पाप गाँव के माथे चढ़ जाएगा."
"अब हम क्या करें, हमने तो कहा था कि आकर मेरी मड़ई में शरण ले लो, पर वे माने ही नहीं." ललिता पंडित अपनी जगह ठीक थे, "हम तो उस दिन सुबह से शाम तक लग कर पेड़ के नीचे चबूतरा बना दिए कि कम से कम छाँव तो रहेगा."
"ऐसा क्यों नहीं करते कि वहीं पर एक मड़ई डलवा दो' संकठा सिंह ने कुछ सोचते हुए कहा.
" बाऊ साहब, अब हमारी हैसियत कहाँ है मड़ई डलवाने की"
"एक काम करो मेरे बँसवार से दो बाँस कटवा लो और ककटी वाले खेत के पास से सरपत. देखता हूँ कुछ रहेट्ठा और लकडा पड़ा होगा. टटरी बनवाकर चारो तरफ से घिरवा देना." संकठा सिंह की बात सुनकर ललिता पंडित ऐसे खुश हुए जैसे मन की मुराद पूरी हो गयी हो. कई बार मन में यह बात उठी तो थी पर माली हालत के कारण उसे मन में ही दबा देना पड़ा था. बाबा इस सेवा से अवश्य खुश हो जायेंगे.
वे शाम से ही मड़ई बनवाने की व्यवस्था में जुट गए . दूसरे दिन शाम तक कनेर के झुरमुट के बीच जहाँ पेड़ थोड़े दूर- दूर थे , साफ सफाई करके एक झोपड़ी डाल दी गयी. गाँव के बहुत से लोगों ने यथा शक्ति योगदान किया. मुख्य सामन तो संकठा सिंह के यहाँ से मिल ही गया था. बनिया ने बाँधने के लिए बाध मुफ्त में दे दिया. बेचन महतो अपने परिवार और आस पड़ोस के साथ मड़ई बनाने में पूरा श्रमदान दिए. राम आधार पांडे के यहाँ लकडी का एक बोटा पड़ा था, लोहार ने उससे एक तख्त बना दिया. दरी तो पहले से ही थी, वह तख्त पर बिछ गयी.
रोज रोज गाँव से खाना आना मुन्नर को अच्छा नहीं लगता था. इसलिए एक दिन ललिता पंडित से स्वयं खाना बनाने की इच्छा प्रकट की. ललिता पंडित ने और लोगों की मदद से खाना पकाने के लिए आवश्यक बर्तन रखवा दिए.मुन्नर स्वयं खाना पकाने लगे. जब मन होता तो दोनों वक़्त बना लेते, नहीं तो एक वक़्त से ही गुजारा कर लेते. गाँव से जो भी मिलने आता साथ में कुछ आटा, चावल या दाल जो भी जिसकी इच्छा और सामर्थ्य होती, ले आता.
अब मुन्नर के खाने, पहनने और रहने की समस्या का स्थायी समाधान हो चुका था. मड़ई के बनने के बाद से वहाँ अधिक लोग आने भी लगे थे और ज्यादा देर तक बैठने लगे थे. मुन्नर भी अब खुश रहते थे और बहुत ही मनोयोग से तुलसी रामायण का पाठ करते और उसकी व्याख्या करते जो उन्होंने बाबूजी से सीखा था. यह नयी जीवन शैली उन्हें भाने लगी थी. न तो किसी से दुश्मनी थी और न ही किसी से बैर. भक्तों की कृपा से रामायण के अलावा कुछ एक और धार्मिक ग्रन्थ भी उनकी झोपड़ी में आ चुके थे. जब भी खाली समय रहता उसमे उनका अध्ययन करते. मन का क्लेश मिटने लगा था. किन्तु अपने गाँव घर का मोह कभी कभी उन्हें आकर घेर लेता था. "घर पर लोग कैसे होंगे, उनके आने के बाद क्या हुआ होगा ?" यह विचार कभी कभी मन में फन उठाकर खड़ा हो जाता और वे थोड़े अनमने हो उठते.
बहरहाल, जिंदगी ने एक रास्ता पकड़ लिया था. एक निश्चित दिनचर्या में दिन गुजरने लगे थे. धीरे धीरे वह स्थान "कुटी" के नाम से जाना जाने लगा था और मुन्नर "कुटी वाले बाबा" के नाम से.
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समय के साथ साथ मुन्नर, बाबा के रूप में कुटी पर स्थापित हो चुके थे और उनके चमत्कार के छोटे मोटे किस्से कुछ एक दिनों के बाद प्रकाश में आने लगे थे-- कभी एक ही क्लास में दो साल से फेल हो रहा मँगरू पास हो जाता. कभी पंद्रह दिन से बीमार चल रहे रामजनम के बेटे का बुखार बाबा के स्पर्श मात्र से ही उतर जाता. कभी परवतिया का भूत बाबा के सामने आने से ही भाग खडा होता. कभी जीतन की भैस, जो दो बार से पड़वा जन्म रही थी इस बार पड़िया जन्म देती. कभी गाँव में डकैती डालने की योजना बना रहे डकैत , डकैती से पहले ही पुलिस के द्वारा पकड़ लिए जाते. गाँव की बहुत सी छोटी बड़ी घटनाएँ बाबा के तपोबल से प्रभावित होने लगी थीं.
यदि किसी को बाबा के आशीर्वाद का इच्छित फल नहीं मिल पाता तो वह यही सोचता कि श्रद्धा में कहाँ कमी रह गयी या फिर ईश्वर ही विपरीत हैं? आस पास के गाँव के लोग भी गाहे बगाहे बाबा का आशीर्वाद लेने चले आते थे. ललिता पंडित के ऊपर बाबा की विशेष कृपा थी. वे बिना बाबा के आशीर्वाद के एक खर भी इधर से उधर नहीं करते थे.
लेकिन उस दिन गजब हुआ जब पड़ोस के गाँव के चन्द्रबली सेठ अपनी कार से उतरे और बाबा के पैरों में लेट गये. साथ में आई लारी से फलों की टोकरी, मिठाई के डिब्बे , गद्दे , रजाई, सखुआ की लकडी का बना सुन्दर तख्त जिसके पायों पर नक्काशी की गयी थी, उतरने लगा.
बाबा अपनी झोपड़ी में तख्त पर बैठे थे. सामने एक दरी बिछी हुयी थी जिस पर श्रद्धालु आकर बैठते थे. चन्द्रबली का घुटना जमीन पर टिका था और माथा बाबा के पैरों पर. आँखों से आँसुओं की धार बह निकली थी. ख़ुशी के आँसू थे.
आज से एक साल पहले यही चन्द्रबली इसी झोपड़ी में बाबा का दर्शन करने पत्नी सहित आये थे. मुख पर क्लेश था. होता भी क्यों नहीं. कहाँ कहाँ नहीं जा चुके थे . कोई भी मंदिर -मजार, पीर- फकीर, साधु -महात्मा , डाक्टर-वैद्य उनकी जानकारी में न बचा था, जहाँ वे सर न नवा चुके हों. किन्तु फिर भी पत्नी की गोद हरी न हो पायी थी. हर जगह नाउम्मीदी ही हाथ लगी थी. भगवान का दिया सब कुछ था. अच्छा खासा कारोबार. धन दौलत , घोड़ा गाडी सभी कुछ. कुछ न था तो वो महल जैसे घर के आँगन को अपनी किलकारियों से भरने वाली संतान. संतान सुख के लिए दिन रात छटपटा रहे थे. विवाह हुए सात साल हो चुके थे किन्तु संतान का मुख देखने को तरस गए थे.
उस दिन जब बाबा के चरणों में सर नवाकर अपना दुखडा सुनाये तो बाबा ने कहा था - " ईश्वर पर भरोसा रखिये, सब ठीक हो जाएगा" और पास में पड़ी कठौती में से लाचीदाना का प्रसाद उठाकर पति-पत्नी दोनों को दिए थे। जो भी बाबा के पास कोई भी याचना लेकर आता था , बाबा उसकी मनोकामना पूर्ण करने के लिए इसी मंत्र का प्रयोग करते थे.
चन्द्रबली के घर आज बेटे ने जन्म लिया है. जिस ख़ुशी के लिए वर्षों से तरस रहे थे आज वह आँसुओं में ढलकर बाबा के चरणों को प्रक्षालित कर रही थी. बाबा ने उन्हें शांत कराकर बैठाया. दरी पर कुछ और भी भक्त गण बैठे हुए थे.
"बाबा ! आप तो साक्षात देवता हैं, आपके आशीर्वाद से ही मेरा सौभाग्य उदित हुआ. आप मेरे लिए भगवान हैं...." चन्द्रबली सेठ भाव विभोर हो उठे थे और बाबा की शक्तियों की आराधना करने लगे .
जर-जवार में बच्चा बच्चा जान गया कि कुटी के बाबा असीम शक्तियों के स्वामी हैं . कुछ भी करने में सक्षम. गाँव के कुछ संभ्रांत लोग जिनके मन में अभी तक शंका थी, उन्हें भी बाबा के चमत्कारों पर अब अविश्वास न रहा. जो लोग पहले बाबा की कुटी तक कभी नहीं जाते थे या किसी के साथ चले भी गए तो दूर से ही प्रणाम करके निकल लेते थे. अब उनके पास जाकर पूरी श्रद्धा से सर नवाते थे.
कुटी की कायापलट होने लगी. चन्द्रबली सेठ ने दो पक्के कमरे बनवा दिए , एक दूसरे से जुड़े हुए. एक में बाबा के सोने के लिए पलंग थी और दूसरे में बाबा दोपहर के भोजनोपरांत ध्यान लगाते थे. एक छोटा सा मंदिर भी बन गया था, जिसमे रामजी की मूर्ति थी , सीता मैया के साथ और एक दीवार से लगी भक्त हनुमान की मूर्ति थी. गाँव के लोग भी यथाशक्ति बाबा के आराम के साधन जुटाते रहे .
धीरे धीरे बाबा की कुटी तक आधुनिक संसाधन भी आने लगे. अभी तक गाँव में सरकारी ट्यूबवेल के अलावा कुछ एक बहुत ही सम्पन्न लोगों के घर पर ही बिजली थी लेकिन अब बाबा की कुटिया भी बिजली की रोशनी में चमकने लगी थी. बिजली के पंखे भी लग गए थे. रिकॉर्ड प्लेयर आ गया था. बाबा रोज सुबह उठकर मुकेश का गाया राम चरित मानस का रिकॉर्ड लगा देते थे. पूरी कुटी भक्तिमय स्वर लहरियों में डूबने लगती थी. अनेकों वाद्य यन्त्र भी आ गए थे. गाँव के कई गवैये और भक्त शाम को कुटी पर आ जाते थे और कीर्तन होता था. ढोल, मजीरों की आवाज से कुटी गूँज उठती थी. अब कुटी सुबह- शाम चहल पहल से भरी रहने लगी.
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समय पंख लगाकर उड़ जाता है. पाँच साल से ज्यादा हो चुके हैं मुन्नर को इस गाँव मे आये हुए. लेकिन आज भी जब वह दिन याद आता है तो आँखों आँखों के सामने सारे दृश्य सजीव उठते हैं. अपने गाँव में बीता अंतिम दिन, जेल की यातनाएँ और इस गाँव में, लू के थपेडों के बीच खुले आसमान के नीचे बिताये गए शुरूआती दिन. एक गहरी उच्छ्वास लेते मुन्नर - "जिंदगी भी क्या क्या करवट लेती है."
सुबह शाम तो कुटी पर लोगों की आवाजाही रहती है परन्तु दोपहर में प्रायः एकांत होता हैं. बस ललिता पंडित का बड़ा लड़का भोला, जो शरीर और दिमाग दोनो से ही थोडा असामान्य था, रहता है. वह मुन्नर का शिष्य जैसा हो गया है. सुबह आँख खुलते ही कुटी पर आ जाता, शाम को खाना खाने के बाद घर जाता. मुन्नर के सारे काम , खाना बनाना , कपडे धोना इत्यादि सब वही करता है.
दोपहर को जब मुन्नर खाना खाने के बाद आराम करते, तो कई बार न चाहते हुए भी मन उड़कर अपने गाँव में पहुँच जाता. माई का चेहरा आँखों के सामने आ जाता. भईया , मुन्नी , छुटकी सभी की याद आती. यह भी विचार उठता कि मेरे आने के बाद क्या हुआ होगा. कैसा चल रहा होगा सब कुछ घर पर. घर का आँगन, द्वार पर का नीम का पेड़, कुँआ सब कुछ ही चित्र से आँखों के सामने आ खड़े होते.
लगभग पच्चीस साल के हो चुके थे मुन्नर. कभी कभी जून की दोपहर की तपती लू की तरह यौवन का गुबार उठता और तन-मन दोनों को झुलसा देता. जाड़े की सर्द रातों में बिस्तर में अकेले करवट बदलते हुए एकाकीपन का अहसास अपनी चरम पर पहुँच जाता.
उस दिन जब लक्ष्मी, जो ससुराल से पहली बार वापस मायके आई थी, सहेलियों के साथ बाबा के दर्शन करने आई थी. जब उनके अभिवादन के लिए पैरों को स्पर्श किया था, उसकी कोमल उँगलियों की छुवन से पूरे शरीर में एक बिजली सी कौंध गयी थी. कलाई में सजी लाल और हरी चूडियों की चमक उनके आँखों से मन में उतर गयी थी. सामान्य शक्ल सूरत वाली लक्ष्मी उन्हें गुलाबी साड़ी में कितनी मोहक लगी थी. बहुत देर तक उसे देखते रहे थे. मन में दबी एक चिनगारी कुलबुला उठी थी.
कभी चाँदनी रात में मंदिर के चबूतरे पर बैठकर कनेर के पत्तों से जमीन पर छनती चाँदनी को एकटक देखते और सोचते कि काश कोई होती जिसकी उँगलियों को पकड़कर पारिजात के पेड़ के पास ले जाते और तने से पीठ टिकाकर उसकी आँखों में अपने सपनो को उतरते हुए देखते………कोई होती जो इस समय उनके बगल में आकर बैठ जाती और उनका हाथ अपने हाथ में ले लेती. उनके दिल की धड़कने उसे छूने लगती. कितने ही सपने, कितनी ही चाहतें आँखों में अचानक तैर जातीं. जिनके कभी पूरा हो पाने की कोई भी संभावना दूर दूर तक नज़र नही आ रही थी.
"वैसे तो कितने लोग आस पास हैं, पर मेरा कौन है. मैं तो इतना विवश हूँ कि किसी से मन की बात भी नहीं कह सकता. न तो कोई बात करने वाला और न ही सुख दुःख बाँटने वाला....कल यदि मुझे कुछ हो गया तो मेरी लाश को यहीं उठाकर नदी में प्रवाहित कर देंगे ..न तो कोई संस्कार होगा न ही कोई अंत्येष्टि " ऐसे कई विचार मुन्नर के मन में प्रायः उभर आते और मन अनमना हो जाता.
दिन के चार बजने वाले थे. मुन्नर अपने साधना कक्ष में तैयार हो रहे थे. भोला ने चन्दन घिस कर रख दिया था. इक्का- दुक्का लोग कुटी पर आने आगे थे. एक-दो घंटे में पूरा जमघट लग जाएगा और कीर्तन शुरू हो जाएगा. उसके पहले बाबा लोगों से मिलने के लिए ओसार में बैठते थे. जो झोपड़ी शुरुआत मे डाली गयी थी अब वहाँ छप्पर का एक बड़ा सा ओसार बन गया था. वहीँ पर बाबा तख्त पर बैठकर माला फेरते रहते और जो लोग आते बाबा का चरण स्पर्श करके सामने बिछी हुयी दरी पर बैठ जाते. जिसको जितनी देर तक बैठना होता, बैठता. फिर उठकर चला जाता.
चन्दन लगाते हुए मुन्नर ने देखा दाढ़ी बढ़कर सीने तक आने लगी थी. माथे तक उगे घने बालों में पीछे की ओर कई लटें बन चुकी थीं. चन्दन लगाकर गेरुआ गमछा काँधे पर डाल लिया जिसका दोनों सिरा कमर तक लटक रहा था. एक हाथ में माला की थैली ली, खड़ाऊँ पहना और ओसार की ओर चल दिए. ओसार में सात आठ लोग पहले से ही थे. बाबा को देखकर खड़े हो गए. बारी बारी से पाँव छूने लगे. अभी वे तख्त पर बैठे ही थे कि एक व्यक्ति आकर पैरों पर गिर पड़ा.
"बाबा, बहुत दूर से आया हूँ, मन में एक मुराद लेकर...." कुछ रुक रुक कर वह बोले जा रहा था, “करीब पांच-छह साल पहले मेरा छोटा भाई कहीं चला गया ...” कहते कहते उसकी आँखें भर आयीं और गला रुँधने लगा था.
ओसार में बाहर की अपेक्षा कम प्रकाश था. इसलिए अन्दर आने पर मुन्नर एकदम से पहचान न सके थे. भईया भी पाँच साल में कुछ बूढ़े से लगने लगे थे. सिर के बाल खिचड़ी हो चले थे.
भईया का मन पहले से ही संतप्त था. सोच में डूबे हुए थे इसलिए मुन्नर के चेहरे की ओर ध्यान से देख नहीं पाए थे.
बहुत अजीब सा धर्मसंकट खड़ा हो गया था, गाँव के कुछ लोग भी बैठे थे, बड़ा भाई चरणों में पड़ा था.
"आप धीरज रखिये......" मुन्नर तख्त से उठे. भईया का कंधा पकड़कर उन्हें उठाया और दरी पर बिठा दिया.
भईया को आवाज कुछ जानी पहचानी लगी. दरी पर बैठकर वह मुन्नर की ओर देखने लगे. पाँच साल में कुछ तो परिवर्तन आ ही जाता है. ऊपर से लम्बी दाढी- मूँछ और बालों का लट, माथे पर त्रिपुंड. मुन्नर ने देखा भईया की आँखे उन्हें पहचानने की कोशिश कर रही हैं. कुछ देर तक समझ में न आया कि क्या करें. सब लोग खामोश बैठे हुए थे.
"आप मेरे साथ आईये" मुन्नर उठ कर खड़े हो गए और भईया की ओर इशारा करके बोले.
भईया मुन्नर के पीछे पीछे उनके साधना कक्ष में आ गए. ओसार में बैठे लोग विस्मित थे.
"क्या बात हुयी, आज तक तो बाबा ने कभी ऐसा नहीं किया था " किसी ने चिंता प्रकट किया.
"कोई बहुत ही गहन समस्या होगी, बाबा देखते ही कष्ट जान लिए. इसलिए ही तो अपने साधना के कमरे में ले गए" दूसरे ने प्रश्न का समाधान किया.
कमरे में पहुँचते ही मुन्नर ने भईया का पैर छुआ. और बोल उठे ' भईया !!!"
"मुन्नर !!!!" भईया की आँखें विस्मय और ख़ुशी से चमक उठीं, आँखों में आँसू छलछला उठे। छोटे भाई को गले से लगा लिया. यह मुन्नर के लिए नया अनुभव था. भईया ने आज तक उन्हें कभी गले नहीं लगाया था.
दोनों भाई अन्दर तख्त पर बैठ गए.
'माई की आँखों में आँसू आज तक नहीं सूख पाए हैं, हर रोज सोचती है कि आज तुम वापस लौट आओगे......" कहते कहते भईया का गला भर आया. मुन्नर को भईया के चेहरे पर माई के मन की पीड़ा दीख रही थी.
"मुन्नर! घर वापस चले चलो, हियाँ परदेश में कौन है तुम्हारा......" भईया समझाने लगे थे, " और अभी तुम्हारी उमर ही क्या है...चल के अपनी घर-गृहस्थी बसाओ...यह उमर सन्यासी बनने की तो नहीं है. '
'हूँ ..........." मुन्नर ने सिर हिलाया. अभी तक मुन्नर को रोज घर गाँव की याद सताती थी और मन में कई बार उठा था कि वापस लौट आयें. पर आज जब भईया ने वापस चलने को कहा तो एक हिचकिचाहट सी मन में उभर आयी. शायद इस कुटी के प्रति मोह उमड़ आया था. यहाँ का सुख और सम्मान दोनों ही मन को बाँधने लगे थे. कुछ निर्णय न कर पा रहे थे.
"तुम्हारे आने के बाद तो बहुत ही मुश्किल समय आ पड़ा था...." मुन्नर को खामोश देखकर भईया ने बात आगे बढ़ाई, " एक तरफ घर का राशन ख़त्म होता जा रहा था और दूसरी ओर माई तुम्हारे गम में बीमार रहने लगीं थी. कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या करुँ......" मुन्नर की आँखें भईया के चहरे पर गडी हुयी थीं. बहुत उत्सुक थे जानने के लिए.
"वो तो बृजमोहन उस समय अवतार बन कर आ गए थे..." भईया आगे कहना शुरू किये. बृजमोहन, उनकी बहन रमला के पति हैं. अच्छा खासा संपन्न परिवार है उनका. "उस साल के लिए पूरा राशन भिजवा दिए थे." भईया की आँखों में कृतज्ञता उभर आयी थी. मुन्नर ने राहत की साँस ली.
"सब भगवान की लीला है. वही दुःख के भँवर में धकेलता है और निकलने का रास्ता भी वही बनाता है ....." थोडा रुक कर बोले. "बृज मोहन की बहुत जान पहचान है. दो साल पहिले, खेत पर बैंक से कर्जा दिलाकर एक ट्रक्टर निकलवा दिए. उससे बहुत राहत हो गयी. दो साल में मुनिया की शादी के लिए पैसे का जुगाड़ हो गया...."
"........ हाँ तुम्हे यह तो बताये ही नहीं की मुनियाँ की शादी तय कर दी है....इसी साल गर्मी में करेंगे... तारीख अभी पक्की नहीं हुयी है.
"मुनियाँ इतनी बड़ी हो गयी है ?..." मुन्नर की आँखों में थोड़ा आश्चर्य सा उभर आया. फिर स्वयं ही बोले, " हाँ तभी ग्यारह बारह साल की थी. पांच छह साल तो बीत गए हैं.
"भाई, पिछली सारी बातों को बिसार दो और घर वापस चले चलो...अपने गाँव में भी दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ तो हो ही जाएगा." भईया की आवाज बहुत ही सर्द थी...एक अजीब सा दर्द था, "तुम्ही तो मेरे अपने हो, अपना खून हो और भगवान न करे अगर हमें कल कुछ हो जाता है तो तुम्हारे सिवाय कौन देखने वाला है... सब अनाथ हो जायेंगे" कहते कहते भईया की आँखे नम हो गयी. वह नमी मुन्नर की आँखों में भी उतर आयी. भईया का यह रूप पहली बार देख रहे थे.
"हाँ बात तो आपकी ठीक है...." भईया की बातों से मुन्नर का मन द्रवित हो उठा था और वापस जाने के लिए सोचने लगे. "पर ऐसे अचानक तो यहाँ से नहीं जा सकते."
"विचार कर लो किस तरह से निकलना है....."
काफी देर तक विचार विमर्श चलता रहा. अंततः यह तय हुआ कि मंगलवार को, आज से चार दिन बाद , भईया पास वाले स्टेशन पर टिकट लेकर इंतजार करेंगे. मुन्नर वहाँ भोर में ही पहुँच जायेंगे और पाँच बजे वाली पैसेंजर से दोनों लोग वापस गाँव चले जायेंगे.
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मुन्नर को खिलाने के बाद रात का खाना खाकर भोला घर चला गया था. बिजली शाम को ही कट गयी थी. आजकल दिन की पारी चल रही है.
मुन्नर ने लालटेन जलायी और ओसार में आ गए. उनके हाथ में एक खुरपी थी. एक कोने से दरी को हटाया और लालटेन जमीन पर रखकर वहाँ खोदना शुरू किया. पाँच मिनट में ही घडे का मुँह आ गया , जिसे मुन्नर ने दबा रखा था. हाथ डालकर जो भी रूपया पैसा था सब बाहर निकाल लिए और घडे का मुँह बंद कर पुनः उसे मिट्टी से ढँक कर ऊपर की मिट्टी दबा दी और उस पर दरी बिछा दिए.
गाँव के लोग जितना आटा, चावल, दाल इत्यादि लाते थे, वो सब मुन्नर और भोला के खाने से कहीं बहुत अधिक होता था. गाँव का बनिया बाकी का सामन ले जाता था और जरुरत की चीजों जैसे साबुन, तेल, प्रसाद , चन्दन, केरोसिन, खाने के अन्य सामान, के बाद जो पैसा बचता था उसे मुन्नर को दे देता था. लोग इस बात को जानते भी थे और इतना समझते भी थे कि कुटी का एक खर्च है जिसके लिए कुछ पैसों की जरुरत पड़ती है.
लेकिन बाबा ने कितना पैसा जमा कर रखा है यह किसी को नहीं पता था. कभी कुछ लोग प्रसाद के साथ नकद रुपये भी चढाते थे. कुल मिलकर एक अच्छी खासी रकम थी. मुन्नर सोच रहे थे- इन पैसों से दो-तीन पछाहीं भैसें तो खरीदी ही जा सकती हैं.
बिस्तर पर लेटे, लेकिन रात भर नीद नहीं आयी. आज जल्दी सवेरा भी नहीं हो रहा है. बार बार उठकर दीवार पर लगी घड़ी देखते.
सुबह के तीन बजे थे. नदी के साथ की पगडंडियों पर मुन्नर लम्बे लम्बे डग भरते हुए चले जा रहे थे. काँधे पर एक बड़ा सा झोला लटक रहा था. जिसमे तुलसी रामायण का एक गुटका, कुछ अंतर्वस्त्र और गेरुआ धोतियाँ और चार पांच साल में जमा की हुयी नकदी थी.
एक दिन इन्ही पगडंडियों पर चलकर आये थे इस गाँव में. तब मन कष्ट के भरा था. विछोह का दुःख था. मन पर अनिश्चितता के बादल छाये हुए थे. कोई मंजिल न थी. कुछ था तो, अनजान रास्ता था, पीड़ा थी.
आज अपने घर लौट रहे थे. "जैसा भी है अपना घर है. माई है, मुनिया और छुटकी है, बाबू तो अब पाँच छः साल का हो गया होगा. जब घर से निकला था तो छः सात महीने का था. इन सबके अलावा कोई और भी आएगा जिसे मैं नितांत अपना कह सकूँगा."
"समाप्त"
I read the story. It is very interesting. Very well written. It appeared as if the sotry is happening somewhere near to my village bcos of the language. But now Im also missing my mother. I've to call her, now she is in village. I talked to brother yesterday only.
जवाब देंहटाएंBest Wishes
Shio Prakash
वाह प्रताप जी बहुत खूब!!
जवाब देंहटाएंसहज-स्नेहपूर्ण भाषा का प्रयोग कहानीकार प्रेमचंद की याद दिला जाती हैं जिसमे घरेलु जीवन की समस्याओं और सामाजिक विडंबनाओं को चित्रित किया गया है कहीं कहीं ठेंठ भाषा का प्रयोग ठहाके लगाने पर मजबूर कर देता है "अब यहाँ क्या लेने आया है रे दुसाध, 'तुम कौनो काम के नहीं हो.....घोड़ा के तरह हो गए हो लेकिन अकल एक पैसा का भी नहीं है. बस कलेवा डेढ़ सेर चाहिए चारो टाइम.... दस साल तक स्कूल का रास्ता नापे, उहाँ तो कुछ हुआ नहीं.... !!! अब शाम को बंधी वालों को दूध की जगह अपना कपार देंगे ?"
ये सब बातें अपने बाबूजी से सुन चूका हूँ इसलिए कहानी थोड़ी दिल को छु भी गयी.
लिखते रहिएगा
सादर
संजय सिंह
९९६३५५४६९६
aapki kahaniyan pad kar bahut acha laga..
जवाब देंहटाएंbahut acha likha hai aapne.. u hi likhte rahiye..
Meri Nayi Kavita par aapke Comments ka intzar rahega.....
A Silent Silence : Naani ki sunaai wo kahani..
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वाह प्रताप जी वाह ... रोज़ मर्रा के जीवन और आम बोलचाल की भाषा से लिए शब्दों में रची सुंदर कृति है ये ... आम व्यक्ति की मजबूरी और समस्याओं को अच्छे से रक्खा है ... बहुत सुंदर ...
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