एक
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"जो मन में आए करो...मरो तुम" झल्लाते हुए प्रिया ने फोन को झन्न से क्रेडिल पर रखा और मेरी तरफ मुड़ी। मैं बेडरूम से सटे स्टडीरूम में कुछ लिख रहा था। कल शाम माँ का फ़ोन आने के बाद से ही प्रिय बेहद तनाव में थी । मैं समझ गया कि उसके लाख समझाने के बावजूद भी अविनाश ने अपनी जिद नहीं छोड़ी होगी। अन्यथा अपने छोटे भाई को गुस्से में भी वह इस तरह से शाप नहीं देती। मुझे ऐसी स्थितियाँ एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ कर देती हैं। समझ में नहीं आता कि क्या कहूँ।क्या करूँ।इसलिए ऐसी स्थिति से बचना ही चाहता हूँ।
प्रिया मेरे पास आ गई। "क्या हुआ?..मैंने विस्तार से जानना चाहा।
"क्या हुआ!!! जैसे कि तुम्हें कुछ पता ही नहीं है", प्रिया कुछ झल्ला गई । पहले से ही चिढ़ी हुई थी। ससुराल और मायके दोनों ही जगहों पर अगर कुछ भी गलत हो रहा हो तो वह प्रिया का जाती मामला बन जाता है। यहाँ तक कि अगर अड़ोस-पड़ोस में हो तब भी। फिर यह तो अपने ही माता-पिता और भाई की बात थी। मैं प्रिया से एकदम उलट अपनी एक काल्पनिक दुनिया में रहना पसंद करता हूँ।
"और तुम्हें फ़र्क ही क्या पड़ता है। तुम्हें तो अपनी मंडली, अपनी किताबें और अपनी दुनिया..." पास में पड़ी हुई कुर्सी पर बैठती हुई बोली। प्रिया मुझसे इस बात पर नाराज़ थी कि उसके कहने के बावजूद भी मैं अविनाश को समझाने नहीं गया था।
"किसी की ज़िंदगी में क्या हो रहा है। कोई जी रहा है या मर रहा है इससे तुम्हें फर्क ही क्या पड़ता है।" वह बड़बड़ाई।
मुझे बुरा लगा। कहना चाहता था कि मेरी दुनिया अकेले की नहीं है। उसमें वर्तिका और तुम भी हो...और मैं इतने में ही खुश रहना चाहता हूँ। मुझे सबके मामले में नहीं पड़ना है। तुम दोनों को ही खुश रख लूँ, यही मेरे लिए पर्याप्त है। फिर भी मैं चुप रहा। बात बढ़ाकर अपना मन नहीं खराब करना चाहता था। प्रिया की तरफ चुपचाप देखता रहा।
"कितनी बार कहा कि उसे समझाओ। एक बार चले जाओ। लेकिन तुम्हारे कान पर जूँ तक नहीं रेंगती।" प्रिया ने उलाहना देते हुए कहा।
"तुम जानती हो मुझे पंचायती पसंद नहीं । तुम्हारा छोटा भाई है। जब तुम्हारा कहा नहीं मान रहा है तो मेरा क्या मानेगा। आज सुबह फ़ोन पर जब उस विषय में मैंने उससे बात करनी चाही तो उसने बात ही बदल दी। तुम्हें अगर जाना है तो चली जाओ।" मैंने एकदम शांत स्वर में कहा। मैंने वास्तव में अविनाश से बात करनी चाही थी। किन्तु वह उस विषय में बात करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। मुझे पता था कि वहाँ जाकर भी कोई फायदा नहीं होने वाला था। ज्यादा दबाव देने पर हमारे बीच का रिश्ता ही खराब होता।
वह उठ खड़ी हुई। "वह तो मैं जाऊँगी ही। तुम अपना सारा ज्ञान किताबों के हवाले करते रहो केवल। " कहती हुई वह कमरे से निकल गई । हमने पाँच साल पहले प्रेम-विवाह किया था। आज तक नहीं जान पाया कि इन पाँच सालों में मेरे अंदर क्या बदल गया था जो प्रिया को प्रायः कष्ट देने लगा था।
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अविनाश प्रिया के परिवार का अकेला सदस्य था जो हमारे विवाह में सम्मिलित हुआ था। बाकी सब लोग हमारे विरुद्ध थे क्योंकि हमने अंतरजातीय विवाह किया था। तब अविनाश अठारह-उन्नीस साल का ही था। प्रिया से लगभग चार साल छोटा होगा । लेकिन मानसिक रूप से बहुत ही परिपक्व। हमेशा हँसता हुआ चेहरा और अत्यंत मिलनसार व्यक्तित्व।
हमारी शादी के दूसरे दिन नाश्ता करते समय अविनाश ने कहा- "जीजा जी, लड़का होने का यह बहुत बड़ा फायदा है कि अगर बापू सामने के दरवाजे से घर के अंदर न दाखिल होने दें तो पीछे से दीवार लाँघ कर भी घर में घुसा जा सकता है।" हम तीनों ही ठहाका लगाकर हँस पड़े। बात बात पर हँसी मजाक करना उसकी आदत थी। जब हम उसे ट्रेन पर विदा कर रहे थे तब हाथ हिलाते हुए बोला -"आप लोग एकदम मस्त रहिए, आज नहीं तो कल सभी मान जाएँगे। न भी मानेंगे तो कौन सा आपके यहाँ राशन की कमी हो जाएगी।" किसी भी दुःख-तकलीफ को हमेशा हँसी में उड़ा देता था।
प्रिया का मायका एक सम्पन्न परिवार था। अच्छी खासी खेती-बाड़ी थी और उसके पिता जी स्कूल में अध्यापक भी थे। अविनाश का मन पढ़ाई में कभी नहीं लगा। किसी तरह से बी ए की परीक्षा पास की और उसके बाद हाइवे पर बाज़ार से लगभग सटे हुए अपनी जमीन पर कुछ दुकानें बनाकर उसमें भवन निर्माण की सामग्री का व्यवसाय करने लगा। उसके मिलनसार स्वभाव और दुनियादारी की समझ के कारण शीघ्र ही उसका व्यवसाय अच्छा चल पड़ा।
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"मैं तुम्हें चारबाग बस स्टैंड पर छोड़ता हुआ ऑफिस चला जाऊँगा।...दोपहर तक तो तुम लोग पहुँच ही जाओगी। ज्यादा से ज्यादा दो घंटे लगेंगे। " ब्लेज़र पहनते हुए मैंने प्रिया से कहा। कल शाम को मेरे और प्रिया के बीच हुई खटपट से बोझिल माहौल अब थोड़ा सामान्य हो चला था। प्रिया आज अपने मायके जाने के लिए तैयार हो रही थी और मैं ऑफिस। वर्तिका नाना के घर जाने को लेकर उत्साहित थी।
"डैडी आप नाना के घर नहीं चलेंगे" मेरी बात सुनकर वर्तिका बोली।
"नहीं बेटा, डैडी आपको लेने आएँगे दो-तीन दिन बाद"। मैंने वर्तिका को गोद में उठाते हुए कहा।
"मैं आपको फोन करूँगी" आजकल किसी का भी फोन आता है तो वर्तिका उठाने का जिद करती है। नया नया शौक और उत्साह है।
"हाँ मेरा बच्चा, हम फ़ोन पर खूब बातें करेंगे" मैंने वर्तिका को चूमते हुए कहा। "चलो अब निकलते हैं जल्दी से नहीं तो देर हो जाएगी"।
हम घर बंद करके गाड़ी में आ गए। रास्ते में कुछ देर बाद खामोशी को तोड़ते हुए प्रिया ने कहा "कैसे कैसे रंग बदल जाते हैं लोगों के। पता नहीं क्या जादू कर दिया है इस लड़की ने उस पर।..." फिर कुछ देर रुक कर बोली, " अभी तक तो सब ठीक था। हम लोग उसका गुणगान करते थे । बेटी के पैदा होते ही पता नहीं अचानक उसे क्या हो गया।...और इस लड़के की भी बुद्धि एकदम भ्रष्ट हो गई है कि उसकी बातों में आकर अपने ही माँ-बाप को छोड़ने को तैयार हो गया है।" प्रिया की आवाज़ में दुःख और परेशानी थी।
"पता नहीं क्या चक्कर है। नमिता ऐसी लड़की तो नहीं लगती है।" मैंने कहा।
"लोग जैसे दिखते हैं वैसे होते कहाँ हैं। आदमी को रंग बदलने में समय लगता है क्या" प्रिया की बातों में मुझे लेकर कटाक्ष था। मैं चुप हो गया।
रायबरेली की बस में प्रिया को बिठाकर मैं ऑफिस चला गया।
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शाम को लौटकर जब कपड़े बदल रहा था तब अलमारी में टंगे क्रीम कलर के स्वेटर पर ध्यान चला गया जो कि मुझे बहुत ही पसंद था। उस पर आसमानी रंग की चौड़ी पट्टियाँ खूब फबती थीं। नमिता ने मेरे लिए बुनी थी । स्वेटर को देखते हुए नमिता के परिहास के स्वर भी कानों में गूँज उठे। "इस स्वेटर में देखकर दीदी आपके प्रेम में दोबारा पड़ जाएँगी" जब मैंने स्वेटर को पहना तब उसने हँसते हुए कहा था।
डेढ़ साल पहले अविनाश का विवाह हुआ था।
नमिता ने विवाह के बाद जब पहली बार आँगन में कदम रखा था तब पूरा घर उसके रूप से जगमगा उठा था। मुँह-दिखाई की रस्म के लिए आई आस-पड़ोस की औरतों की आँखें चौंधिया गयी थीं। अविनाश की माँ इतनी सुंदर पुत्र-बधू पाकर प्रसन्न तो थीं किन्तु मन में कहीं यह आशंका भी पल रही थी कि इतनी अधिक सुंदरता क्या आत्म-मुग्धता से बाहर निकल सकेगी और इतने कोमल हाथ क्या सास-ससुर की सेवा के लिए आगे बढ़ पाएँगे। किन्तु जल्दी ही उनकी शंका निर्मूल साबित हुई जब एक सप्ताह के अंदर ही नमिता ने पूरे घर के सुख-दुःख को अपना लिया और घर के हर जड़-चेतन के साथ पानी की तरह हिल-मिल गयी। सुंदर, सुशील, गुणवान, मृदुभाषी, मिलनसार, पढ़ी-लिखी; शास्त्रों में वर्णित नारी के समस्त गुणों से युक्त लड़की थी।
सास-ससुर को लगने लगा कि उनके घर में एक बहू नहीं अपितु एक बेटी रह रही है। दोनों लोग अपनी पुत्र-बधू के गुणों का बखान करते नहीं थकते थे। अविनाश को लगा कि उसके पूर्व जन्मों के समस्त पुण्य इकट्ठा होकर नमिता के रूप में उसके पास चले आये हैं। प्रेम से सिक्त दिन रात पंख लगाकर उड़ने लगे थे। कब डेढ़ साल गुजर गए पता ही नहीं चला। इस बीच घर में वह खुशखबरी भी आयी जो सबको आनंदित कर देती है। नमिता माँ बनने वाली थी। अस्पताल से जब से दादी बनने की खबर आई थी सास फूली नहीं समा रही थीं। लक्ष्मी घर आ रही है। व्यवस्था में जोर शोर से जुट गई थीं। लेकिन एक तो ऑपरेशन और ऊपर बच्ची के कमजोर पैदा होने के कारण एक सप्ताह बाद बहू और बच्ची घर लौटे।
अभी पोती के घर आने का जश्न ख़त्म भी नहीं हुआ था कि अविनाश ने घोषणा कर दी कि वो अब अपनी पत्नी और बच्ची को लेकर अलग किराए के घर में रहेगा। पूरे घर में मातम पसर गया। माँ के ऊपर तो जैसे आसमान ही टूट पड़ा।
"क्या बेटा हमसे क्या गलती हो गई जो ऐसा फैसला कर लिए।..."माँ का स्वर पीड़ा में डूबा हुआ था, "आखिर क्या बात हो गई। हमें भी तो कुछ पता चले। अभी तक तो सब कुछ ठीक था। बहू भी कितनी खुश थी। अचानक क्या बात हो गई."।
"कोई बात नहीं है।...बस अकेले रहने का मन है हमारा।" कहता हुआ अविनाश बाहर चला गया। बहू ने भी अपनी जबान पर ताला लगा लिया था।
रात में खाना खाते समय माँ फिर से अविनाश को समझाने लगीं, "कैसे अकेले रहोगे बेटा, हमारा नहीं तो कम से कम उस नन्हीं सी जान की तो फिक्र करो। अभी वह एक हप्ता शीशा के बक्से में रही। कितनी कमजोर है। ऊपर से माँ की छाती में दूध भी नहीं उतर रहा है।.."साड़ी के पल्लू से आँखें पोछती हुई आगे कहने लगीं, "अपनी फूल सी औरत का तो ख़याल करो। कैसी कुम्हला गयी है बेचारी। ऊपर से इतनी दवाइयाँ। कोई साथ नहीं रहेगा, खाने पीने का ख़याल नहीं रखेगा तो कैसे रह पाएगी बेचारी। उसे इस समय सेवा की जरूरत है।"
"अम्मा चिंता न करो मैंने सब इंतजाम कर लिया है। कहारिन रहेगी देखभाल के लिए। और हम कोई बहुत दूर नहीं जा रहे हैं। दस कदम की ही दूरी पर हैं। जब मन करे चली आना मिलने और हम लोग भी आते रहेंगे।" अविनाश ने एकदम सपाट स्वर में कहा।
"फिर इतना बड़ा घर छोड़कर जा ही क्यों रहे हो। आखिर क्या कमी है यहाँ। क्या परेशानी है हमसे।"
"कोई कमी नहीं है। मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता। हमें जाना है बस।" अविनाश ने बेरुखाई से कहा और अपने कमरे में चला गया।
प्रिया जब रायबरेली पहुँची तब तक अविनाश दूसरे घर में जा चुका था। माँ की आँखों के आँसू और पिता के चेहरे की विवशता भी उसे नहीं रोक पाए थे। फिर बहन की बातों की लाज कहाँ रखनी थी। उसे समझाने तो गयी थी लेकिन खाली हाथ ही लौट आई। दो दिन अपने माता-पिता के साथ रहकर वापस लखनऊ लौट आई।
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दो
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अच्छा हो या बुरा, समय तो बीतता ही रहता है । देखते देखते तीन साल बीत गए।
जैसे जैसे समय समय बीतता गया मेरे और प्रिया के संबंधों की मिठास कड़वाहट में बदलती गई । एक तरफ जहाँ प्रिया को समझ पाना मेरे लिए दिनों दिन और मुश्किल होता जा रहा था वहीं प्रिया के लिए मेरा व्यवहार उत्तरोत्तर असहनीय। पहले तो सुबह शाम ताने दिया करती थी। बाद में चुप्पी साध ली। जो कि मुझे बहुत खलती थी।
उस दिन जब सुबह उठा तब प्रिया और वर्तिका दोनों सो रही थीं जो कि अस्वाभाविक था। साढ़े सात बजे चुके थे। वर्तिका की स्कूल बस जा चुकी होगी। प्रिया रोज मुझसे पहले जग जाती थी। वर्तिका को तैयार करती थी और जब वर्तिका स्कूल जाते समय मुझे चूम कर बाय बोलती थी प्रायः तब मैं जागता था।
मैंने प्रिया के माथे को छुआ। थोड़ा गर्म था। प्रिया अचकचाकर जग गई। मैंने कहा- सॉरी, सो जाओ फिर से।"
"न..नहीं.." प्रिया उठ बैठी " क्या टाइम हुआ.." बड़बड़ाती हुयी उसने दीवार घड़ी की ओर देखा। फिर सोई हुई वर्तिका की ओर , "ओह, आज नहीं जा पाई।" उसने अफ़सोस व्यक्त किया।
"कोई बात नहीं। तुम थोड़ा और आराम कर लो। बुखार लग रहा है।" कहकर मैं उठकर बाथरूम में चल गया। जब नहा धोकर बाहर निकला तो देखा कि प्रिया किचन में थी।
"प्लीज यार, तुम रहने दो। मैं खुद बना लूँगा। तुम फ्रेश हो जाओ। बिस्किट खाकर एक पैरासीटामॉल ले लो।" मैंने प्रिया को जबरदस्ती बेडरूम में ले जाकर बिस्तर पर बिठाया और किचन में लौट आया। प्रिया सैंडविच के लिए खीरा, लेटस आदि काट चुकी थी। मैंने ब्रेड सेंका, चीज़ स्लाइस और कटी सब्जियों से सैंडविच तैयार किया और डाइनिंग टेबल पर बैठ गया।
"प्रिया तुम भी तैयार हो जाओ, तुम्हें डॉक्टर को दिखाकर जाऊँगा" मैंने नाश्ता करते हुए कहा।
इस बीच प्रिया वर्तिका को जगा चुकी थी। वह जागकर मेरे पास आई, "गुड मॉर्निंग डैडी" रोज की तरह मेरे गालों पर चूमते हुए वह बोली। "वेरी गुड मॉर्निंग मेरा बेटा " कहते हुए मैंने उसे उठाकर बगल वाली कुर्सी पर बिठा दिया।
"सैंडविच खाएगा मेरा बेटा?"
"मैंने तो अभी मुँह भी नहीं धोया है डैडी"
"हाँ वो तो है...अभी मैं आपका मुँह धुलवाता हूँ"
मैं नाश्ता करते समय वर्तिका से बातें कर रहा था तभी प्रिया भी आ गई ।
"तुम फ्रेश हो गयी?" मैंने प्रिया से पूछा।
"चलो, तुम बाथरूम में।" प्रिया मेरी बात को अनसुनी करके वर्तिका से बोली और उसे ले जाने लगी।
"प्रिया मैं तुमसे कुछ कह रहा हूँ।"
"अभी इतनी सुबह कौन सा डॉक्टर बैठा होगा। तुम ऑफिस जाओ। मेरी चिंता न करो। जरुरत हुई तो दिखा लूँगी।"
"डॉ वशिष्ठ 9.30 बजे तक आ जाते हैं क्लीनिक पर। मैं थोड़ी देर रुक जाता हूँ।"
प्रिया जाते जाते शायद मेरी आधी बात सुनी होगी।
मैं आधे घंटे तक इंतजार करता रहा लेकिन प्रिया तैयार नहीं हुई। सोच रहा था कि प्रिया को डॉक्टर को दिखाने के बाद वापस घर छोड़कर ऑफिस जाऊँगा। लेकिन वह तैयार नहीं हुई। मैं ऑफिस चला गया।
दिन भर ऑफिस में एक के बाद एक मीटिंग में ऐसा उलझा रहा कि प्रिया को फ़ोन करने तक की फुर्सत नहीं मिल पाई और यहाँ तक कि बीमारी की बात मेरे ध्यान से निकल गई। जब घर लौटने को हुआ तब याद आया और प्रिया को फ़ोन किया। उसने नहीं उठाया। घर पहुँचा तो प्रिया मुझसे बात नहीं कर रही थी। मैं समझ गया था कि दिन में मेरे फ़ोन न करने से वह नाराज़ थी।
"कैसी है तबियत तुम्हारी?... सॉरी, इतना बिजी दिन था कि फ़ोन तक नहीं कर पाया" मैंने उसका माथा छूते हुए कहा, "अरे तुम्हारा माथा तो अभी तक गर्म है। डॉक्टर के यहाँ गई थी?"
वह बिना कुछ कहे मेरे सामने पड़ा खाली गिलास उठाकर किचन में चली गयी। मैं उसके पीछे पीछे किचन में गया। "चलो अभी , डॉक्टर को दिखा कर आते हैं" मैंने जोर देकर कहा। वह काम में लगी रही। "चलो न ...इस तरह तो तबियत ज़्यादा बिगड़ सकती है" मैंने उसके हाथों को रोकते हुए कहा।
"प्लीज, ये सब नाटक न करो। नहीं मरूँगी मैं। दिन भर में एक बार फ़ोन तक करने की फुर्सत नहीं मिलती है तुम्हें और अब आकर ...प्लीज ...।"
"आई एम रियली वेरी सॉरी। बताया न कि काम में बहुत बिजी हो गया था।" मुझे सच में बहुत पछतावा हो रहा था। मैंने कहा,"चलो डॉक्टर को तो दिखा लो।"वह अनसुनी करके बेडरूम में चली गयी। रात में खाने के बाद उसने क्रोसिन लिया।
सुबह जब मैं उठा तब प्रिया वर्तिका को स्कूल के लिए तैयार कर चुकी थी। उसका बुखार भी उतर चुका था। मैं भी तैयार होकर ऑफिस चला गया। शाम को जब ऑफिस से लौट कर सोसाइटी के गेट पर पहुँचा तभी वहाँ प्रिया ऑटो रिक्शा से उतरी। वह कमजोर लग रही थी। मैंने कार को बाहर ही पार्क किया और उतरकर जल्दी से प्रिया के पास गया। उसे सहारा देने के लिए बाहों से पकड़ लिया। उसका शरीर गर्म था। डॉक्टर के यहाँ से लौटी थी। मैं उसे सहारा देकर ले जाने लगा. "इतनी तबियत ख़राब थी तो फ़ोन कर दी होती। मैं आ जाता।"
प्रिया को पूरी तरह ठीक होने में लगभग एक सप्ताह लग गया।
बुखार वाली घटना के बाद से प्रिया ने मुझसे बात करनी एकदम बंद कर दी थी।
घर के अंदर अजीब सी घुटन होने लगी थी ।
एक दिन सुबह जब प्रिया ने टेबल पर मेरे नाश्ता रखा तब मैंने कहा, "बैठो मुझे तुमसे बात करनी है।" मैं चाहता था कि जो भी स्थिति है उससे निकला जाए और उसके लिए बात करना बहुत जरूरी था। मेरी बात अनसुनी करके प्रिया बेडरूम में चली गई। मैं उसके पीछे पीछे गया। "प्लीज प्रिया, एक बार बात करो।" वह जाकर बेड पर बैठ गयी थी। "फ़ॉर गॉड शेक कुछ कहो। जो भी कहना चाहती हो। अच्छा, बुरा कुछ भी।"
"मुझे तुमसे कुछ भी नहीं कहना है" प्रिया ने एकदम सपाट स्वर में कहा।
"आखिर ऐसा कब तक चलेगा?" वह एकदम खामोश रही। "एक छत के नीचे कब तक हम अजनबियों की तरह रहेंगे। मेरा दम घुटता है।" मैंने झल्लाकर कहा।
"मैं भी यही सोच रही हूँ" कहती हुई वह बाथरूम में घुस गई। मैं बहुत देर तक प्रतीक्षा करता रहा किन्तु वह बाहर नहीं निकली। आखिर मैं ऑफिस चला गया।
शाम को जब लौटा तब सोसाइटी के गेटकीपर ने मुझे फ्लैट की चाभी दी और कहा, "मैडम बाहर गयी हैं। आपको चाभी देने को कहा था।"
मैं फ्लैट में पहुँचा। फ़्रिज से पानी की बोतल निकाली और सोफे पर बैठकर पीने लगा तभी मेरी नज़र सेंटर टेबल पर पेन से दबाकर रखे गए कागज पर पड़ी। मैंने उठाया। प्रिया का चिट था- तुमने सुबह सही कहा था कि घुटन होने लगी है। तुम्हें उस घुटन से मुक्ति दे रही हूँ। रायबरेली जा रही हूँ। प्लीज आना मत।
पढ़कर मेरा सिर चकरा गया। इतनी सी बात के लिए कोई घर छोड़कर जाता है। प्रिया का दिमाग खराब हो गया है। मुझे बहुत तेज गुस्सा आ रहा था। वर्तिका की पढ़ाई के बारे में भी उसने एक पल नहीं सोचा। जो मर्ज़ी करे। और किस बात पर इतना गुस्सा। मैंने किया ही क्या है। मैंने अपनी तरफ से हमेशा उसे खुश रखना चाहा है । क्या सोचती है कि मैं उसके बिना रह नहीं सकता। नहीं जाऊँगा उसे लेने। जब मर्जी आए या न आए।
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तीन
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लगभग छः बजने वाला था जब अविनाश का फ़ोन आया। मैं ऑफिस में था। प्रिया को गए लगभग दो सप्ताह हो चुके थे।
"कहाँ हैं जीजा जी, ऑफिस में?"
"हाँ ऑफिस में ही हूँ...और बताओ सब ठीक ?"
"हाँ बिलकुल ठीक है...बस आपके शहर में आया था तो सोचा कि आपके दर्शन भी करता चलूँ। "
"अरे! कब आए ?"
"आया तो दोपहर में ही था। पी डब्लू डी की ऑफिस में कुछ काम था। अभी फ्री हुआ हूँ। आपको ऑफिस से निकलने में अभी कितना टाइम लगेगा। ?"
"तुम ऐसा करो कि फ्लैट पर पहुँचो। मैं ऑफिस से निकलता हूँ। लगभग साथ ही पहुँच जाएँगे। "
"ठीक है। "
मैंने अपना सामान समेटा और ऑफिस से निकल गया।
पिछले तीन साल अविनाश के लिए बहुत ही बुरे रहे। उसके घर से अलग हो जाने के बाद जब प्रिया रायबरेली से लौटकर आई तो उसने अविनाश से बातचीत करनी बिलकुल बंद कर दी थी। मैं हाल-चाल जानने के लिए गाहे-बगाहे फ़ोन कर लिया करता था। उस घटना को लगभग छः महीने बीते होंगे कि उसकी बच्ची काल के गाल में समा गई । उसे हेपिटाइटिस सी हो गया था। जन्म के समय ही कमजोर थी। सारे इलाजों के बावजूद उसे बचाया नहीं जा सका था। उसकी मृत्यु की खबर पाकर मैं और प्रिया गए थे। अविनाश और नमिता को बच्ची की मौत का गहरा आघात लगा था। नमिता का चेहरा एकदम पीला पड़ चुका था और कांति बिलकुल गायब हो चुकी थी। चहकती हुई आवाज एकदम क्षीण हो चुकी थी। ऐसा लग रहा था मानो बरसों से बीमार हो। सब कुछ एकदम बिखरा बिखरा लग रहा था। उस समय सबका मत यही था कि अविनाश नमिता के साथ पुनः अपने पैतृक घर में चला जाय। माँ बहुत रोईं भी। बहुत मान-मनौवल हुआ लेकिन वे जाने को राजी नहीं हुए।
अविनाश का दुःख पहली संतान के चले जाने पर ही नहीं ख़त्म हो सका। अभी आगे उसे और भी विकट स्थितियों का सामना करना था। बच्ची के जाने के लगभग एक साल बाद नमिता टीबी से ग्रसित हो गई । जब पता चला तब तक बीमारी अपने अंतिम चरण में पहुँच चुकी थी। अविनाश लखनऊ के अलावा नमिता का दिल्ली तक के अस्पतालों में इलाज़ करवाया लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। लगभग चार-पाँच महीने बाद उसकी भी मृत्यु हो गई। अविनाश को इतना हारा हुआ पहले कभी नहीं देखा था। अंदर से बुरी तरह टूट चुका था। अस्पतालों के चक्कर लगाते लगाते उसका स्वयं का भी स्वास्थ्य खराब हो चुका था। अब वह नितांत अकेला पड़ चुका था। इस बार जब उसे वापस घर ले जाने की बात हुई तो उसके पास विरोध करने का न तो कोई कारण था और न ही शक्ति। नमिता को गुजरे लगभग एक साल हो चुका है।अब धीरे धीरे अविनाश का मन थोड़ा शांत हो चला है और वह पुनः पूर्ववत व्यवहार करने लगा है।
जब मैं सोसाइटी के गेट पर पहुँचा तब वहाँ अविनाश को चहलकदमी करते हुए पाया। उसकी कार गेट के बाहर खड़ी थी। आज ड्राइवर नहीं था। आमतौर पर अविनाश स्वयं ड्राइव नहीं करता है। "ड्राइवर नहीं है ?" मैंने पूछा। "नहीं, वह कहीं गया है। मेरा आना जरुरी था इसलिए आज खुद ही ड्राइव करके आ गया।" उसने उत्तर दिया। मैंने उसकी कार गेस्ट-पार्किंग में खड़ी करवाई और अपनी कार निर्धारित जगह पर खड़ी करके हम दोनों फ्लैट में पहुँच गए। वैसे तो कामवाली साफ़-सफाई करने आती थी लेकिन फिर भी घर थोड़ा अस्त-व्यस्त पड़ा हुआ था। मेरा खाना बनाने का कोई नियम नहीं था। जब मन किया तो बना लिया नहीं तो बाहर से मँगा लिया। दिन में तो ऑफिस की कैंटीन में ही खाता था।
मैंने फ्रिज से पानी की दो बोतलें निकाली और हम सोफे पर बैठकर बोतलों से ही पानी पीने लगे.
"और बताओ... कैसे आना हुआ ?" मैंने पानी पीते हुए पूछा।
"पी डब्ल्यू डी का एक टेंडर निकला हुआ है। उसी सिलसिले में आया था। सोच रहा हूँ कि अब छोटे मोटे काम के ठेके भी लेता रहूँ "
"हूँ...यह तो बहुत अच्छी बात है।" फिर थोड़ा रूककर मैंने कहा,"बिल्डिंग मटेरियल का बिज़नेस कैसा चल रहा है ?"
"एकदम बढ़िया। अब तो पापा भी कभी कभी बैठने लगें हैं। पहले तो दुकान के पास भी नहीं जाते थे।' मुस्कराते हुए कहा, "इससे हिम्मत बढ़ी है, कुछ और भी करने की। "
"बहुत अच्छा। बाकी सब ठीक...अम्मा -पापा ?
"ठीक हैं सब लोग। आते समय वर्तिका जिद कर रही थी कि मुझे भी पापा के पास जाना है।" अविनाश ने फीकी हँसी हँसते हुए कहा। वर्तिका को सोचकर मेरा चेहरा थोड़ा गंभीर हो गया।
"चाय पिओगे?...रुको मैं बनाता हूँ" कहता हुआ मैं सोफे से उठा। जब किचन की तरफ जाने लगा तभी मेरे मन में कुछ और उठा। मैं किचन से दो काँच की गिलासें और आलमारी से व्हिस्की की बोतल उठा लाया।
"ये क्या ! ..आप तो चाय बनाने गए थे। " अविनाश ने हँसते हुए कहा।
"अरे यार चाय छोड़ो। दो-दो ड्रिंक लेते हैं। फिर खाना मँगवाता हूँ " कहते हुए मैं गिलास और बोतल सेंट्रल टेबल पर रखकर वापस मुड़ा। पानी और कुछ स्नैक्स लेने के लिए। फिर याद आया कि हमने अभी तो कपडे भी नहीं बदले हैं। जाते हुए मैंने कहा," ऐसा करते हैं कि चेंज करके आराम से बैठते हैं। तुम भी चेंज कर लो। दूसरे बेडरूम में चले जाओ " मैं अपने बेडरूम में चला गया. जब कपडे बदल कर और हाथ-मुँह धोकर ड्राइंग रूम में लौटा तब तक अविनाश भी कपडे बदलकर आ चुका था। आते हुए मैं किचन से पानी और स्नैक्स लेता आया था।
अविनाश के चेहरे पर कुछ असमंजस के भाव थे। जैसे कि वह नहीं पीना चाहता था।
"क्या हुआ ? मन नहीं है ?.... कोई नहीं , एक ही पैग लेना" मैंने पैग बनाते हुए कहा। हमने चीयर्स किया और एक एक घूँट भरकर गिलास को मेज पर रख दिया।
थोड़ी देर खामोशी सी छाई रही। फिर अविनाश ने कहा, "यह पहली बार है जब मैं इस घर में आया हूँ और आप अकेले हैं। "
"हाँ। ..." मैंने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा। साथ में व्हिस्की का एक लंबा घूँट भरते हुए कहा, "प्रिया कैसी है?"
"यह तो आप को पता होना चाहिए जीजा जी। बाकी सबका हाल तो मैं बता सकता हूँ लेकिन दीदी का हाल...." उसने वाक्य बीच में ही छोड़ दिया। मैं उसके उलाहने को समझ गया था। गिलास में बची हुई व्हिस्की को मैं एक घूँट में पी गया। दूसरा पैग बनाना चाहता था। देखा कि अविनाश की गिलास अभी भी भरी हुई थी। मैंने कहा,"अरे ख़त्म करो, दूसरा बनाता हूँ। "
"नहीं मैं और नहीं लूँगा।" अविनाश ने कहा।
"अरे , एक और लो... अब रात में रायबरेली तो जाना नहीं है। खाकर सोना ही है।" मैंने थोड़ा जोर देते हुए कहा।
"नहीं, वो बात नहीं है। वास्तव में मैं इसे भी ख़त्म नहीं कर सकता।" उसने अर्थपूर्ण ढंग से कहा। मैंने तब तक अपने लिए दूसरा पैग बना लिया था। और पहला घूँट भरते हुए कहा, "क्यों ? डॉक्टर ने मना किया है ?" मैंने कुछ परिहास के ढंग से कहा।
"हाँ... डॉक्टर ने मना किया है।" उसने बेहद गंभीरता से कहा। मुझे लगा जैसे वह कुछ बताना चाह रहा हो।
"क्या ?.... कहना क्या चाहते हो ?" मेरी आँखों में खड़ा प्रश्नचिह्न एकटक अविनाश को देख रहा था। अविनाश थोड़ी देर खामोश रहा। जैसे वह निर्णय कर रहा हो कि बताये या नहीं। "बोलो...कोई दिक्कत है?" मैंने अविनाश को खामोश देखकर कहा।
"जीजा जी..." एक लम्बी साँस भरते हुए अविनाश ने कहना शुरू किया जैसे कि वह निर्णय कर चुका हो, "आप पढ़ते लिखते हैं...मानवीय संवेदनाओं को समझते हैं..." वह थोड़ी देर रुका जैसे कि आगे कहने के लिए साहस जुटा रहा हो। मेरी नज़रें उसके चेहरे पर टिकी थीं। उसने आगे कहना शुरू किया," बहुत कुछ मन के अंदर दबा पड़ा है जो निकलना चाहता है। अगर किसी से कह सकता हूँ तो वह आप ही हैं। आप ही समझ सकते हैं मेरी बातों को। "
"हाँ... बेझिझक कहो। "
"मैं एच आई वी पॉज़ीटिव हूँ। " मुझे लगा कि कमरे में कोई बम फटा हो। मेरा दिल धक् से कर गया। शराब की जो थोड़ी खुमारी चढ़ी थी वह एकदम से हिरन हो गई।
"क्या?????" मैंने लगभग अपनी जगह से उछलते हुए कहा। मेरा मुँह खुला रह गया था।
"हाँ.... " सिर हिलाते हुए उसने धीरे से कहा। जब कुछ क्षणों के लिए लुप्त हो चुकी मेरी चेतना वापस लौटी तो सबसे पहले मन यही उठा कि मेरे सामने एक व्यक्ति बैठा है, जो मेरे साथ शराब पी रहा है, जो मेरे ही प्लेट में से लेकर नमकीन और चिप्स खा रहा है, जिसने मेरे बोतल से पानी पीया था, जिसने मेरे गुसलखाने का उपयोग किया था, जिसने मुझसे हाथ मिलाया था और जो मेरे गले लगा था; यदि वह व्यक्ति एड्स जैसे रोग से ग्रसित है तो मैं कितना सुरक्षित हूँ?
"मैं टॉयलेट से अभी आता हूँ" कहकर मैं एकदम से उठा और तेजी से टॉयलेट की ओर चला गया। कुछ देर वहाँ स्वयं को संयत किया। कुछ विज्ञापन याद आये कि "एचआईवी" छूने से नहीं फैलता है। दूसरे यह भी सोचा अविनाश इससे ग्रसित है तो उसे इसके बारे में पता होगा। मैं उसकी बहन का पति हूँ। वह कोई ऐसा काम तो करेगा नहीं जिससे मुझ पर कोई संकट आये। मैं वापस लौटकर ड्राइंग रूम में आ गया।
"जीजाजी आप ठीक तो हैं ?"
"हाँ" मैंने बैठते हुए कहा।
"पहले तो आपको यह बता दूँ कि आपको मुझसे कोई खतरा नहीं है। क्योंकि "एचआईवी" न तो छूने से फैलता है न ही साथ में बैठने और खाने-पीने से।" संभवतः वह मेरे मनोभावों को समझ गया था और मुझे निश्चिन्त करना चाहता था। उसने आगे कहा, "आपके लिए और बाकी सबके लिए भी मैं एक सामान्य व्यक्ति ही हूँ। " उसकी बातें सुनकर जब स्वार्थी मन निश्चिन्त हुआ तब मन में करुणा उभर आई कि मेरे सामने एक ऐसा व्यक्ति बैठा है जो एक लाइलाज बीमारी से ग्रसित है। अभी इसकी उम्र ही क्या है। मन द्रवित होने लगा था।
"कैसे ... मतलब कि.. " समझ में नहीं आ रहा था कि क्या पूछूँ , कैसे पूछूँ।
"मैं जानता हूँ आप के मन में अनेक प्रश्न उठ रहे होंगे। कब हुआ, कैसे हुआ, अभी क्या हाल है, मैं कब तक ज़िंदा रहूँगा वगैरह।"
मैंने हाँ में सर हिलाया।
"आपको याद होगा कि बच्ची के जन्म के बाद हॉस्पिटल से लौटने के बाद मैंने अलग घर ले लिया था..." उसने कहना शुरू किया, "बिलखती माँ के आँसुओं को भी दरकिनार करके घर छोड़ देना आसान नहीं था मेरे लिए" कहते कहते आँखें भर आई थीं और चेहरा भावुकता की तीव्रता से सिहर उठा था।
"यानी कि हॉस्पिटल में पता चला था ?"
-हाँ.... नमिता के खून की जाँच हुई थी. मैं वार्ड में उसके पास ही था। उसे थोड़ा दर्द हो रहा था। डॉक्टर अभी तय नहीं कर पा रहे थे कि नार्मल डिलीवरी हो पाएगी या ऑपरेशन करना होगा। तभी एक वार्ड बॉय आया और मुझे डॉक्टर के चैम्बर में ले गया। वहाँ लेडी डॉक्टर के साथ एक और डॉक्टर भी थे। पहले तो मुझसे मेरे बारे में पूछने लगे - कहाँ रहते हैं ? क्या करते हैं ? और भी कई बातें। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात है। उन्होंने कहा कि क्या आपके पिता जी आ सकते हैं? मेरे मन में एक शंका सी उठने लगी थी। हालाँकि पापा कुछ देर में हॉस्पिटल पहुँचने वाले थे लेकिन मैं उन्हें इन सब बातों में नहीं पड़ने देना चाहता था। ख़ुशी का मौक़ा था और मैं चाहता था कि अगर कोई कम्प्लीकेशन है तो वह पापा को न पता चले। आखिर मैंने जोर देते हुए कहा - "डाक्टर साहब जो भी कहना चाहते हैं आप मुझसे ही कहिये। वैसे तो मैं अभी बाइस साल का ही हूँ लेकिन हर स्थिति के लिए तैयार हूँ । आप मुझसे बेझिझक कह सकते हैं। "
डॉक्टर ने कहना शुरू किया -"आपकी पत्नी के ब्लड रिपोर्ट में एच आई वी एंटी बॉडीज पॉजिटिव पाई गई हैं। हमें शक है कि वह एच आई वी से इन्फेक्टेड हो सकती हैं। हमने कन्फर्म करने के लिए आगे की जाँच करने को सैंपल भेज दिया है। लेकिन चूँकि डिलीवरी को और देर तक टाल नहीं सकते हैं इसलिए अभी ऑपरेशन करना होगा । ऑपरेशन में रिस्क है लेकिन ऑपरेशन न करना माँ और बच्चे दोनों के लिए ज्यादा रिस्की होगा। ...नार्मल डिलीवरी में बच्चे के इन्फेक्टेड होने का खतरा भी बढ़ जाएगा।" डॉक्टर की बातें सुनकर मेरे होश उड़ गए। मेरे अंदर-बाहर एक गहरा सन्नाटा छा गया। संतान प्राप्ति की सारी ख़ुशी पल भर में काफूर हो गयी। मैं जड़वत हो गया। "मिस्टर अविनाश ! ऑपरेशन करना जरुरी है। " मुझे चुप देखकर डॉक्टर ने जोर देकर कहा। "ठीक है " मैंने बस इतना ही कह सका।
ऑपरेशन से डिलीवरी
हुई । बच्ची पैदा हुई। जब पापा बेटी का बाप बनने के लिए मुझे बधाई दे रहे थे तब मैं अपने ब्लड-रिपोर्ट के बारे में सोच रहा था। ऑपरेशन के दौरान मैं जाँच के लिए खून दे आया था। लाख कोशिशों के बावजूद चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी। पापा को लगा कि मैं बेटी पैदा होने के कारण उदास हो गया हूँ। उन्होंने कहा भी - पहली संतान है। लक्ष्मी है। मायूस क्यों हो। आजकल क्या लड़किया लड़कों से कम हैं।
मन में बार बार यही उठता था कि काश मेरा रिपोर्ट नेगेटिव आ जाए। शाम तक मेरा भी ब्लड रिपोर्ट आ गया। जैसी की आशंका थी एंटीबॉडी टेस्ट पॉजिटिव ही निकला। --- कहकर अविनाश ने एक लम्बी साँस भरी। मैं उसे विस्मय और कौतूहल देख रहा था।
उसने आगे कहना शुरू किया - "जीजाजी, जब मैं पैथोलॉजी से रिपोर्ट लेकर वार्ड की तरह जा रहा था तब एक बार मन में आया कि वहीं तीसरे माले से छलांग लगा दूँ। लेकिन अपने आप को रोक लिया। बहुत सी बातें मन में घूमने लगीं। अम्मा-पापा का चेहरा। नमिता और नवजात की चिंता। "
"नमिता को कब पता चला?" मैंने पूछा।
"मेरे बस का होता तो शायद उसे कभी नहीं बताता। जब डिलीवरी के बाद उससे वार्ड में मिला तब कुछ देर में ही उसे यह लगने लगा था कि सब कुछ ठीक नहीं है। पहले तो उसने भी यही सोचा कि शायद लड़की के पैदा होने के कारण मैं उदास हूँ। लेकिन जल्दी ही उसने उदासी और परेशानी के बीच के अंतर को पढ़ लिया। हालाँकि मैंने उस समय उसे बच्ची के बहाने टाल दिया था। बच्ची भी इन्फेक्टेड थी और काफी कमजोर भी। इसलिए उसे अलग ग्लास-बॉक्स में रखा गया था। नमिता ने सोचा मैं बच्ची के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित था।" ऐसा लग रहा था कि अविनाश की आँखों के सामने वे पल तैर रहे थे।
थोड़ा रुक कर उसने आगे कहना शुरू किया,"अजीब सी स्थिति थी। एक तरफ जश्न था और एक तरफ मातम। पहले दिन नमिता को कुछ भी बताने की हिम्मत नहीं हुई। "वायरल लोड टेस्ट" के रिपोर्ट से पता चला कि नमिता का "सीडी फोर काउंट" एक सौ बयासी था। यानि कि बीमारी अपने अंतिम स्टेज में पहुँच चुकी थी। ... हमारे शरीर में "सीडी फोर" सेल्स होते हैं जो रक्षा कवच की तरह काम करते हैं। वायरस उन्हें नष्ट करने लगते हैं जिससे बहुत ही आसानी से कोई बीमारी शरीर में प्रवेश कर सकती है। "एच आई वी" की गंभीरता को जानने के लिए यह टेस्ट किया जाता है। मेरी स्थिति काफी बेहतर थी। पहला ही स्टेज था। अभी वाइरस ने मेरे सेल्स को ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचाया था। " मैं निरंतर अविनाश को देख रहा था। उसके चेहरे पर उठते गिरते भावों की लहरों को महसूस कर रहा।
उसने आगे कहना जारी रखा, "बहुत मुश्किल था नमिता से कुछ भी छुपा पाना। फिर भी मैंने लगभग चार दिनों तक उसे पता नहीं चलने दिया था । हालाँकि रिपोर्ट आने के बाद ही उसकी एंटी रेट्रोवायरल थेरेपी चालू हो गयी थी। शुरू में वह समझी कि वे दवाएँ ऑपरेशन का घाव सुखाने के लिए हैं। लेकिन वह पढ़ी-लिखी समझदार लड़की थी। जल्दी ही जान गयी कि मेरी चिंता के पीछे कोई गंभीर कारण था। मेरे मन में भी पिछले चार दिनों से एक गुबार पल पल घना होता जा रहा था जो फूटना चाहता था। चीखना चाहता था। चौथे दिन, रात में वह गुबार फूट पड़ा। हम दोनों एक दूसरे के गले लगकर बहुत देर तक रोते रहे। आँसुओं साथ साथ बहुत ढेर सारा दर्द भी बहा।" कहकर वह चुप हो गया। उसके चेहरे पर दर्द उभर आया था।
कुछ देर एक खामोशी सी छायी रही हमारे बीच। मेरा मन तमाम घटनाओं की कड़ियाँ जोड़ने में लगा हुआ था। बच्ची के जन्म के फंक्शन में अविनाश का अनमना रहना , उसका घर से अलग होना, अचानक उसके व्यवहार में परिवर्तन होना, नमिता का कांतिहीन और बीमार चेहरा इत्यादि सारी कड़ियाँ स्वयं ही जुड़ती जा रही थीं। हालाँकि कई प्रश्न अभी भी मन में थे।
मैंने चुप्पी तो तोड़ते हुए कहा, "यार इतना कुछ तुमने अकेले सहा।...अकेले संभाला।...कोई और होता तो शायद आसमान सर पर उठा लेता।" मेरे सामने बैठा तेईस-चौबीस साल का लड़का अचानक मुझे बहुत बड़ा दिखाई दे रहा था। कितनी विकट परिस्थितियों से उसे इतनी कम उम्र में ही गुजरना पड़ा। अकेले ही लड़ता रहा। किसी को भनक तक नहीं होने दी। सारा दोष अपने माथे पर लेता रहा।
बीमारी की गंभीरता के स्तर से मुझे इतना तो अंदाजा हो गया था कि इस बीमारी से पहले नमिता ही ग्रसित रही होगी क्योंकि जब अस्पताल में दोनों के खून का परीक्षण हुआ तो उनके हालत में बहुत अंतर था। फिर भी मैंने पुष्टि करने के लिए पूछा, "नमिता पहले से ही इंफेक्टेड थी?"
"हाँ" उसने सिर हिलाते हुए कहा।
"उस समय तो मन में काफी रोष भी उपजा होगा।" मैंने कहा।
"जीजाजी, गुस्सा आना तो बहुत स्वाभाविक था। हम दूसरों के द्वारा हुए अपने छोटे मोटे नुक़सान नहीं बर्दाश्त कर पाते हैं और आपत्ति दर्ज करा देते हैं। मेरी तो ज़िन्दगी का ही प्रश्न था।" भावावेश में उसके चेहरे का रंग बदल गया था और आँखें छलछला गई थीं। वह थोड़ा रुककर बोला, "मैंने नमिता से बहुत प्यार किया था और मुझसे ज्यादा उसने मुझसे किया था। मेरे अंदर वह इतना घुल चुकी थी कि कभी अलग लगी ही नहीं। अस्पताल में हमारी बीमारी के बारे में पता लगने पर उसके चेहरे पर जो पीड़ा उभरी थी उसमें मेरा सारा गुस्सा स्वाहा हो गया था।" वह कुछ देर के लिए चुप हो गया।
फिर शून्य में देखते हुए स्वयं बोल उठा ,"उसने मुझे बहुत खुशियाँ दी थीं। लाखों खूबसूरत पल दिए थे। इतने खूबसूरत जिनकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। आज भी उनकी गुदगुदाहट मेरे मन में है। उसने हर पल मुझे अहसास दिलाया था कि उसका अस्तित्व सिर्फ मेरे लिए ही था। अगर मुझे पहले से पता होता तो भी शायद उससे ही शादी करता। " अविनाश की बातें सुनकर मुझे प्रिया के साथ के अपने शुरूआती दिनों की याद आ गई। जब लगता था कि पूरी दुनिया की ख़ुशी उसके चेहरे और हँसी में समाई है। अविनाश कहता जा रहा था ,"अंतिम पल तक उसे अपनी ज़िन्दगी की चिंता से अधिक सिर्फ यही अफ़सोस था कि उसके कारण मुझे यह रोग हुआ। रात-दिन पश्चाताप में जलता उसका मन उसे जल्दी ही निगल गया। नहीं तो शायद कुछ और दिन जी सकती थी।" उसकी आँखों के कोरों से आँसू छलक गए। उस समय अविनाश के सामने मुझे अपना कद बहुत ही छोटा लग रहा था। एक वह है जो ऐसी घातक बीमारी से जूझते हुए आज भी यह सोच रहा है कि नमिता, जिसके कारण उसे यह बीमारी लगी, कुछ समय और जी ली होती। और एक तरफ मैं। ..."
मुझे गंभीर देखकर अविनाश बोल पड़ा,"खैर, किसी भी बात का कोई अफ़सोस नहीं है मुझे । न ही किसी से कोई गिला शिकवा है। न दुनिया से, न ज़िन्दगी से और न ही ऊपर वाले से। ज़िन्दगी जैसी भी है बहुत अच्छी है।" अविनाश के भावात्मक उद्गारों के बीच एक प्रमुख बात तो रह ही गयी थी जो कई बार मन में उठी थी। किन्तु बातों में दब गयी थी। वह यह कि अविनाश का स्वास्थ्य अभी कैसा है । मैंने पूछा , "अभी तुम्हारी तबियत कैसी है?"
"जीजाजी, मैंने इस बीमारी को हराने की ठानी है। मुझे एक आम आदमी की तरह ही अपनी पूरी ज़िन्दगी जीनी है। तभी नमिता की आत्मा को शांति मिल पाएगी और वह अपनी नज़रों में दोष-मुक्त हो सकेगी। उसकी कातर नज़रें आज भी मुझसे कहती हैं - मरना मत, मेरे प्यार।" फिर गला साफ़ करते हुए आगे बोला, "यहीं पीजीआई में हर महीने चेक अप कराता हूँ। दवाइयाँ नियमित रूप से खाता हूँ। योग और मॉर्निंग वॉक करता हूँ। खान-पान का पूरा ख़याल रखता हूँ। वास्तव में "एच आई वी" अपने आप में कोई बीमारी नहीं है। इसके वायरस शरीर के "इम्यून सिस्टम" को नष्ट करने की कोशिश करते हैं जिससे कोई भी बीमारी शरीर में आसानी से लग जाती है। इसलिए अपने इम्यून सिस्टम को ठीक रखना पड़ता है। पहली बार डिटेक्ट होने के बाद से आज तक मैंने अपना "सीडी फोर" कम नहीं होने दिया है। और न ही होने दूँगा।" उसने बहुत ही विश्वास से कहा।
मैंने खाना बाहर से मँगा लिया था। हम दोनों खा-पीकर लगभग ग्यारह बजे सोए।
दूसरे दिन सुबह नाश्ते के टेबल पर।
"कैसे चलेंगे आप, अपनी कार से या मेरे साथ ? "
"तुम्हारे साथ ही चलता हूँ। लौटते समय टैक्सी कर लूँगा। वैसे भी वर्तिका साथ में होगी तो उसके साथ खेलते आऊँगा।
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